मंगलवार, 3 जुलाई 2018

मेरे यादों का शहर...


मैं यादों के उस शहर से अभी- अभी होकर आई हूं 
ठहरी है जहां निगाहें मेरी 
उस समंदर से मिल कर आई हूं 
मैं यादों के उस शहर से अभी- अभी होकर आई हूं...
मिलती थी हर रोज़ खुशियां जहां 

हाथों में डाले हाथ हम गुज़रे थे जहां
उस रेत पर अपने निशान छोड़ कर आई हूं
मैं यादों के उस शहर से अभी- अभी होकर आई हूं...

तस्वीरों का जहां हिसाब नहीं हुआ
नज़ारों का जहां कभी अंत नहीं हुआ
उन वादियों से मिल कर आई हूं
मैं यादों के उस शहर से अभी- अभी होकर आई हूं...

शरारतों ने जहां कभी इजाज़त नहीं मांगी
मोहब्बत ने जहां कभी, वक़्त की मोहलत नहीं मांगी
उन गलियों से गुज़र कर आई हूं
मैं यादों के उस शहर से अभी- अभी होकर आई हूं...

बाहें खोल कर जहां इज़हारे इश्क़ किया
तेरे साथ जहां हर पल को जिया
मुस्कुराहटों से भरी उन शामों से मिल कर आई हूं
मैं यादों के उस शहर से अभी- अभी होकर आई हूं...

डूबता हैं जहां सूरज नशे में चूर होकर
चांद की रौशनी में खुद को खोकर
शाम की उस चौखट को छू कर आई हूं
मैं यादों के उस शहर से अभी- अभी होकर आई हूं...

बुधवार, 27 जून 2018

लघु कथा- तुम्हें ज़रूरत नहीं किसी निशानी की


मानव (झिझकते हुए): सुनो, क्या मैं ये अंगूठी उतार दूँ?

अपेक्षा: लेकिन ये तो हमारी सगाई की अंगूठी है, इसे क्यों उतार रहे?

मानव: देखो न, मेरी उंगली में अंगूठी का निशान बन गया है। मैं कुछ दिन के लिए इसे नहीं पहन सकता और वैसे भी मुझे आदत नहीं है ये सब पहनने की, इसीलिए उतार रहा हूँ, तुम संभाल कर रख दो।

अपेक्षा (थोड़ा मुस्कुराते हुए): ह्म्म्म... ये बिछिया देख रहे हो मेरे पैरों में, जब भी जूती या सैंडल पहनने की कोशिश करती हूं... ये गढ़ती है उंगली में, बहुत दर्द होता है। इस वजह से मैंने अपनी पसंद की फुटवियर पहननी ही बंद कर दी। अब सिर्फ वही चप्पल खरीदती हूं जिसमें उंगलियां आगे से खुली रहती हैं...

...अच्छा ये छोड़ो, मेरा मंगलसूत्र देखो, पता है गर्मियों में कई बार पसीना आने से इसकी वजह से मुझे दाने हो जाते हैं। फिर भी मैं इसे उतारती नहीं...

...और ये कांच की चूड़ियां, ये तो सबसे ज्यादा नटखट हैं, काम करते-करते खुद तो टूटती ही हैं, साथ में मेरे हाथों में चोट भी दे जाती है...

...उफ्फ ये कान की बाली, सोते समय बहुत तंग करती है, कभी-कभी तो कान का छेद पका भी देती है।
मुझे भी आदत नहीं थी ये सब रोज़ पहन कर रहने की, फिर भी पहनती हूं।
और गलती से कभी इनमें से कुछ उतार दूं या पहनना भूल जाऊं तो तुम्हारी मां यानी मेरी सासू मां टोक देती हैं और साथ में सुहाग की निशानियों पर दस बातें भी सुना देती हैं...

...पर तुम्हें कोई नहीं टोकेगा और ना बातें सुनाएगा। क्योंकि तुम्हें किसी निशानी की ज़रूरत नहीं....लाओ रिंग मुझे दो, मैं संभाल कर रख देती हूं।

रविवार, 4 मार्च 2018

शादी के बाद भला क्यूँ बदलूं मैं अपना नाम ???



सुप्रिया नितिन सिन्हा... मैंने शादी के बाद फेसबुक पर अपना नाम बदलकर, ये नाम रखने की कभी नहीं सोची. हालाँकि फेसबुक पर मैंने अक्सर ऐसी बहुत सी लड़कियों को देखा है जो शादी होते ही अपने नाम के आगे अपने पति का नाम जोड़ लेती है. शायद अपना प्यार जताने का ये उनका एक तरीका हो या फिर अपने पति का नाम अपने नाम के आगे जोड़ कर उन्हें शान महसूस होती हो. या फिर वो इस वर्चुअल दुनिया को यह बताना चाहती हों की 'देख लो अब मेरी शादी हो गयी है, अब नो चांस'... खैर, एक तरह से ये उनकी पसंद का मामला है, वो जो भी चाहे करें अपने नाम के साथ.
 
मुझे आज भी याद है, स्कूल में मेरी एक सहेली ने बताया था की उसके यहाँ एक रिवाज़ है. जिसमें शादी होते ही ससुराल वाले लड़की का दूसरा नाम रख देते है और आगे की पूरी ज़िन्दगी वो उसी नाम से जानी जाती है. उस समय भी मझे ये बात कुछ ख़ास समझ नहीं आई थी. मैं सोचती थी कि आखिर जब माता-पिता ने अपनी बेटी का एक प्यारा सा नाम रख दिया है तो उसे बदलना क्यों? कहीं न कहीं उसी समय मेरे बाल मन ने यह तय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं अपना नाम कभी भी नहीं बदलूंगी. 

दादी-नानी से अक्सर ये कहते सुना है कि लड़कियां पहले अपने पिता के नाम से जानी जाती है, शादी के बाद अपने पति के नाम से और बच्चे होने के बाद उनके नाम से. कुल मिलकर बचपन में ही हमें ये बात घुट्टी बना कर पिला दी जाती है कि हमारा अपना कोई अस्तित्व नहीं होता. मगर अब समय बदल गया है. अब हर दूसरी लड़की बड़े होने पर सफ़ेद घोड़े पर सवार राजकुमार के सपने नहीं देखती बल्कि अपने करियर को एक बेहतर दिशा में ले जाने के सपने देखती है. आज हर लड़की का सपना सिर्फ शादी करके घर बसना नहीं होता. बल्कि उसके साथ-साथ अपने करियर को एक नई उड़ान देना भी होता है. वो इतनी सक्षम होती है कि अपना नाम खुद बना सके और खुद अपनी पहचान कायम रख सके.

तो फिर क्यों अपना नाम बदलें. शादी से पहले हमने जिस नाम से अपनी पहचान बनाई है उसी नाम को क्यूँ हम शादी के बाद बदल दें. मुझे मेरा नाम बहुत पसंद है और मैं उसे फेसबुक या फिर अपने किसी डाक्यूमेंट्स में नहीं बदलना चाहती. ऐसा नहीं है कि मुझे दुनिया के बनाये हुए उसूलों से उल्टा चलने की आदत है. बस मेरी सोच इस मामले में अलग है.

लोग मुझे पहले भी सुप्रिया श्रीवास्तव के नाम से ही जानते थे और मैं चाहती हूँ की मेरी शादी के बाद भी वो मुझे इसी नाम से जाने न की किसी और नाम से. मैं खुशकिस्मत हूँ कि मेरे इस फैसले में मेरे पति ने मेरा पूरा साथ दिया. वो खुद नहीं चाहते कि मैं उनके नाम से जानी जाऊं बल्कि वो मेरी अपनी एक इंडिविजुअल पहचान बनते देखना चाहते है. वो बहुत खुश होते है जब कोई उनसे मेरे ब्लॉग की या मेरी राइटिंग की तारीफ़ करता है. आखिर मेरे हर ब्लॉग के सबसे बड़े क्रिटिक भी तो वही हैं.

ये मेरा नाम है. वो नाम जिससे बचपन में मुझे स्कूल में एडमिशन मिला. वो नाम जिससे मैंने अपना कॉलेज पूरा किया, वो नाम जो मेरी डिग्रियों से लेकर मेरे आधार कार्ड, पासपोर्ट, वोटर आईडी कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस तक में है, वो नाम जिसे मैंने अपनी पहली नौकरी में भरा था. फेसबुक हो, जीमेल हो, लिंक्ड इन हो, मेरा ब्लॉग हो या फिर कुछ और. मैं हर जगह अपने नाम का इस्तेमाल करना पसंद करती हूँ. आखिर मेरा नाम ही तो मेरी पहचान है तो फिर शादी के बाद भला क्यूँ बदलूं मैं अपना नाम ???    

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

बारिश की बूंदे और मेरी शरारती कलम




बारिश से भीगा हुआ एक कोना, जिसमें बारिश की बूंदे मानो अभी-अभी बरस कर गई हों. हवा भी मानो यूँ ही गुज़र कर निकली हो वहां से. सामने एक हरा-भरा सा बगीचा हो. जिसकी घास अभी भी बारिश का नरम एहसास कराती हो. हाथ में एक गरमा-गरम चाय का प्याला हो. साथ में सुर्ख सफ़ेद कागज़ों से भरी हुई एक डायरी हो और नीले रंग की स्याही में डूबी हुई मेरी शरारती कलम. कुछ भी बेहिसाब, सोच की गहराइयों से शब्दों में डूबा हुआ लिखने के लिए भला इससे अच्छा समां और क्या हो सकता है. 
 
वो अक्सर मुझसे सवाल करते हैं तुम कैसे इतनी आसानी से अपने मन की सारी बातें लिखकर शब्दों में बयां कर देती हो? मैं कहती हूँ, ठीक उसी तरह जिस तरह आप अपने मन की सारी बातें मुझसे बोलकर बयां कर देते हो. मेरे लब शायद मेरे प्रेम, मेरे एहसासों, मेरे जज्बातों व मेरी भावनाओं से मेल न खा पाते हो. पर जब भी लिखने बैठती हूँ तब वो एक-एक शब्द मेरे दिल का हाल बयां कर देता है. मेरी कलम जैसे मेरे बारे में सब कुछ जानती है. मुझे उसको कुछ बताना भी नहीं पड़ता और वो...बस लिखती चली जाती है. यही तो दोस्ती है हमारी. मैं उससे चाहे जितने दिन बाद मिलूं, वो मुझसे कभी नाराज़ नहीं होती. वो हमेशा मेरे दिल की बात समझकर उसे कागज़ पर उतार देती है. 

वो मेरे अकेलेपन की साथी है. उससे मेरी दोस्ती बहुत पुरानी है. उसे मैं तब से जानती हूँ जबसे मैंने होश संभाला है और जबसे मैंने शब्दों से खेलना सीखा है. जब कोई साथ नहीं होता तब बस एक वही तो है जो मेरे साथ होती है. वो न जाने मेरे कितने ही रहस्यों की साक्षी है और न जाने मेरी ज़िन्दगी के कितने पन्नों को अपनी स्याही से भर चुकी है. वो मुझसे कभी शब्दों का हिसाब नहीं मांगती. वो तो बस मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोच के उस सागर में ले जाती है जो बहुत विशाल है, जिसकी कोई सीमा नहीं है, जो हर बंधन से परे है. वो मेरी हर सोच को कागज़ पर उतार कर उसे अमर कर देती है और मेरे अशांत मन को भी सांत्वना देकर शांत कर देती है. 

उसे बारिश से बहुत प्यार है. वो जब भी बारिश को देखती है तो मानो कागज़ पर थिरकने को मचल उठती है. अपनी स्याही के हर रंग से वो कागज़ को जैसे डुबो देना चाहती है. बारिश देखते ही उसकी शरारत जैसे बढ़ जाती है. वो बारिश की बूंदों से मानो खेलना चाहती हो. उसकी यही शरारत मुझे उसकी ओर खींचती है. और मैं निकल पड़ती हूँ उसके साथ एक नए सफ़र पर. कुछ नई यादों को शब्दों में पिरोने तो कुछ पुरानी यादों के पन्नों को फिर से पलटने. मैं खो जाती हूँ उसके साथ अपनी ही दुनिया मैं. जहाँ... सिर्फ मैं होती हूँ और साथ होती है, मेरी शरारती कलम.         

रविवार, 28 जनवरी 2018

मेरा ‘’हैप्पी वाला बर्थडे’’


एक हैप्पी वाला बर्थडे क्या होता है? पूरे दिन घूमना, मस्ती करना और शाम को दोस्तों व परिवार संग जम कर पार्टी करना या फिर शहर से कहीं दूर घूम आना. मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, फिर भी मेरा ये बर्थडे सबसे खास रहा। एकदम हैप्पी वाला बर्थडे। कहीं गुनगुनी धूप में घंटो बैठकर पतिदेव के संग बातें की तो कहीं सड़क किनारे गरम-गरम मैगी और ऑमलेट के मज़े लिए. उस दिन एक बात तो अच्छी तरह समझ आ गई, जिस दिन को प्लान नहीं किया जाता वही दिन सबसे अच्छा बीतता है। क्यूंकि उसमें हमे पता नहीं होता कि आगे क्या होने वाला है. जानती हूँ पोस्ट डालने में थोड़ी देर हो गयी पर कहते हैं न...देर आये पर दुरुस्त आये.  
वैसे तो हमारा प्लान कहीं और घूमने का था. पर भूख लगी तो लंच करने मंडी हाउस उतर गए. मंडी हाउस में त्रिवेणी संगम मेरी फवरेट जगह में से एक है. त्रिवेणी संगम के ओपन थिएटर में गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए कब हमारा नंबर आ गया पता ही नहीं चला और बस लंच करने के बाद वहीँ हमारा मन डोल गया और हमने आगे का प्लान कैंसिल कर मंडी हाउस में पैदल ही तफ़री मारने की सोच ली. उस दिन हम मंडी हाउस की हर सड़क, हर गली घूमे. एक अलग ही नशा है वहां का. सड़क किनारे बैठे गिटार बजाते लोग हों या स्केचिंग करते लोग. तो कहीं बीच पार्क में यूँ ही प्ले की प्रैक्टिस करते हुए अपनी ही धुन में कई लोग. यहाँ सब अनोखे हैं. एकदम अलग ही दुनिया है यहाँ की. कला और प्रतिभा का अनोखा संगम.
वहीँ तफ़री मारते हुए दीवारों पर हमें बहुत से आने वाले प्लेज़ की होर्डिंग्स भी देखने को मिली. जिनमें से फ़रवरी में आने वाले दो शो देखने तो हमने अभी से डिसाइड कर लिए. खैर वहां जो सबसे क्रिएटिव होर्डिंग लगी, वो थी ‘’हजामत’’ की. जैसा की नाम से ही साफ़ है कि ये किसी नाई से सम्बंधित कहानी होगी. इसीलिए लगाने वाले ने इसकी होर्डिंग भी शीशे की लगाई. जो कि अपने आप में काफ़ी इनोवेटिव थी. उस दिन वहां घूमते हुए हम ललित कला अकादमी में लगी आर्ट एक्जीबिशन में भी गए. बाकी लोगों का तो नहीं पता लेकिन  मैंने इतनी अच्छी आर्ट एक्जीबिशन पहली बार देखी थी.
मेरे लिए ये सारे अनुभव एकदम नए थे. हो सकता है कि मुझे दिल्ली शहर से प्यार करने में अभी कुछ और वक़्त लग जाये लेकिन लग रहा है मुझे मंडी हाउस से प्यार ज़रूर हो चुका है. एक अलग ही दुनिया बसती है यहाँ. जिसे हम दोनों ही एन्जॉय करते हैं. खैर, यहाँ सबसे ज्यादा अगर किसी चीज़ को मिस किया तो वो थी साइकिलिंग. पूरा दिन मंडी हाउस में बिताकर यहाँ से बहुत सी अच्छी यादें लेकर मैं और मेरे पतिदेव वापस घर की ओर रवाना हो गए. इस वादे के साथ कि अगली बार आएंगे तो साइकिलिंग ज़रूर करेंगे. और पूरा मंडी हाउस साइकिल से घूमकर इंडिया गेट तक जायेंगे. तो हुआ न ये मेरा ‘’हैप्पी वाला बर्थडे’’. 

शनिवार, 20 जनवरी 2018

गोरे रंग पे न इतना ग़ुमान कर


आजकल टीवी में एक नई क्रीम का एड रहा है। जिसमें लड़कियों को गोरा नहीं बल्कि प्रिटी बनाने पर ज़ोर दिया जाता है। इस एड में गोरी, सांवली, गेहुंई काले कॉम्प्लेक्शन की लड़कियों को दिखाया जा रहा है जिन्हें अपने ओरिजनल कॉम्प्लेक्शन पर गर्व है। यह क्रीम मार्केट में बिकेगी या नहीं ये तो समय बताएगा। लेकिन यह एड एक सीधा कटाक्ष है, उन फेयरनेस क्रीम की कंपनियों पर जो चीख-चीख कर लड़कियों को सिर्फ हफ्ते दो हफ्ते में गोरा बनाने का ढिंढोरा पीटती हैं।

दरअसल गलती इन कंपनियों की नहीं बल्कि गोरेपन के पीछे पागल हो चुकी उस भारतीय मानसिकता का है, जो लड़कों को तो हर रूप में अपना लेगी लेकिन लड़की उन्हें गोरी ही चाहिए, एकदम दूध से धुली हुई। यकीन नहीं होता तो किसी भी अखबार का मैट्रीमोनियल पेज खोल कर देख लीजिए। सभी को घरेलू, सुशील और गोरीबहु चाहिए। अपना लड़का चाहे उल्टा तवा हो पर बहू तो गोरी ही घर आनी चाहिए।

हमारा बॉलीवुड भी इस गोरेपन के पीछे कुछ कम ऑब्सेस्ड नहीं है। सबको सिल्वर स्क्रीन पर गोरी हिरोइन ही देखनी है। यहां तक की रेखा, काजोल, शिल्पा शेट्टी और प्रियंका चोपड़ा जैसी डार्क कॉम्प्लेक्शन की हिरोइनों ने भी वक्त के साथ स्किन लाइटनिंग ट्रीटमेंट कराकर अपने रंग को बदल लिया। जो हिरोइनें इससे चूक गई उन्हें गोरे रंग के पीछे भागने वाले बॉलीवुड के दीवानों ने ज़्यादा दिन तक इंडस्ट्री में टिकने नहीं दिया। भले ही उनकी एक्टिंग अव्वल दर्जे की ही क्यों हो। इस लिस्ट में नंदिता दास, कोंकणा सेन शर्मा, मुग्धा गोड्से जैसे नाम सबसे ऊपर आते हैं। हाल ही में, बिग बॉस में भी शिल्पा शिंदे घर की सांवली लड़कियों के ऊपर कटाक्ष करते दिखाई दीं थीं।

गोरेपन को लेकर लोगों के इसी ऑब्सेशन और पागलपन का फायदा उठाती हैं फेयरक्रीम बेचने वाली कंपनियां। जो पहले से ही झक गोरी हिरोइन को अपने एड में लेकर गोरेपन की ज़रूरत को बेचती हैं। वे लड़कियों के दिमाग में ये बात बैठा देती हैं कि जब वो गोरी होंगी तभी उन्हें कोई पसंद करेगा जबकि सच्चाई इससे अलग ही होती है।

क्या आपने कभी बिपाशा बसु, कोंकणा सेन शर्मा या फिर अन्य डार्क कॉम्प्लेक्शन की हिरोइनों को फेयरनेस क्रीम का एड करते हुए देखा है। यहीं नहीं टीवी पर दिनभर टपकने वाले इन एड्स में लड़कियों को तभी सक्सेसफुल दिखाते हैं जब वो गोरी होती हैं। यानी गोरा रंग नहीं तो सक्सेज़ नहीं। टैलेंट जाए भाड़ में, उसे कौन पूछता है।

आप किसी भी ऑफिस के इंवेट में जाइए, चुन-चुन कर ऑफिस की गोरी-चिट्टी लड़कियों को इंवेट का महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया जाता है। उनका वहां कोई काम भले ही हो पर भाई, लोगों को तो ग्लैमर ही चाहिए और ग्लैमर लाती हैं यहीं गोरी लड़कियां।

ऐसा नहीं हैं कि गोरापन या गोरी लड़कियां बुरी होती हैं। मगर उनके आगे बाकी कॉम्प्लेक्शन की लड़कियों को इग्नोर करना एक हद तक सही नहीं है। हर रंग का सम्मान होना चाहिए। क्योंकि सुंदरता सिर्फ गोरेपन तक ही सीमित नहीं होती। सुंदरता के मायने हर किसी की नज़र में अलग- अलग होते हैं। किसी के लिए तन सुंदर होना मायने रखता है तो किसी के लिए मन की सुंदरता ज़्यादा महत्वपूर्ण होती है। हम जैसे हैं हमें उसी में खुश रहना चाहिए। ठीक उस नई क्रीम के एड की तरह, हर लड़की को अपने कॉम्प्लेक्शन पर गर्व होना चाहिए।