रविवार, 24 जनवरी 2010

भारत में शिक्षा - 'एक सिक्के के दो पहलू'

अंग्रेज़ कहते है भारत एक गरीब देश है और यहाँ के लोग अनपढ़-गंवार। क्या वो सही है? जवाब मिलेगा नहीं, क्योंकि उच्च शिक्षा के लिए पूरी दुनिया में भारत का एक अतुलनीय स्थान है। यहाँ से तकनीकी शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र हर जगह अपनी पहचान बना रहे हैं। शिक्षा एक ऐसा धन है जिसे कोई चुरा नहीं सकता।

मगर ये तो सिक्के का एक पहलू है। सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि भारत में ही निरक्षरों कि सबसे बड़ी आबादी है। आज भले ही गाँव में शिक्षा कि रौशनी दिखाई देने लगी है। स्कूल खुल गए है, टीचर्स भी पहुँच रहे हैं लेकिन उसके बाद भी हमारे देश में करोड़ो लोग अशिक्षित हैं, निरक्षर हैं। क्यों ? भारत में शिक्षा का औसत लगभग ६५.३८ है। जिसमें ७५.८५% पुरुष और ५४.१६% महिलाएं हैं। गाँव की तो छोड़ ही दीजिये क्योंकि वहां तो ३०% पुरुषों ने तो स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। इससे दयनीय हाल तो महिलाओं के हैं। ५०% से ज्यादा लड़कियां स्कूल जा ही नहीं पाती।

कहा जाता है कि तुमने अगर एक मर्द को पढ़ाया तो सिर्फ एक इंसान को पढ़ाया लेकिन अगर एक औरत को पढ़ाया तो एक खानदान को एक नस्ल को पढ़ाया। हाँ उच्च वर्ग के साथ ही मिडिल क्लास परिवारों में अब बेटियों की पढ़ाई-लिखाई पर परेंट्स रूपए खर्च करने लगे हैं और ये खुद में एक प्रशंसनीय बात है। लेकिन आज भी कुछ लोगों की सोच ऐसी बनी हुई है कि वो अपने बेटों को तो स्कूल पढ़ने भेज देते हैं मगर लड़कियों को नहीं। उन्हें लगता है वो पढ़-लिख कर क्या करेगी, आखिर करना तो उसे चूल्हा-चौका ही है न। इसी नासमझी के फेरे में ना जाने कितनी लड़कियां पढ़ने से चूक जाती है। लम्बे अर्से से जारी सरकारी अभियानों के बावजूद भारत में स्त्री-शिक्षा का बुरा हाल है। सरकार लड़कियों के लिए कई स्कूल तो खोल देती है मगर कभी ये पता करने नहीं जाती कि गाँव में कितने माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल पढ़ने भेज रहें हैं।

यूं तो भारत में आज एक बड़ा तबका पढ़ा-लिखा है, अच्छी तरक्की कर रहा है। बड़े संस्थानों से निकले भारतीय छात्रों कि मांग विदेशों में तेज़ी से बढ़ी है। एक से बढ़कर एक पब्लिक स्कूल में परेंट्स अपने बच्चों को पढ़ा रहे है। सरकारी से ज्यादा प्राइवेट स्कूल बन रहे हैं। मगर उसके बावजूद भारत में बसा एक गरीब तबका पढ़ाई करना तो चाहता है लेकिन उसकी गरीबी इसके आड़े आ जाती है।

एक मजदूर का बच्चा प्राइवेट स्कूल की फीस नहीं भर पाता है। क्योंकि मजदूर की एक दिन की कमाई ही लगभग १०० रूपए होती है। वो अपने बच्चे को चाह कर भी स्कूल में नहीं पढ़ा पाता। सरकार कि नज़र शायद इन गरीबों पर जाती ही नहीं। जिनके लिए बच्चों को पढ़ाना तो दूर उनका पेट भरना भी मुश्किल काम है। सरकार इनके लिए सर्वशिक्षा अभियान छेड़ कर महज़ अपना फ़र्ज़ तो अदा कर देती है मगर ये भूल जाती है कि अभियान चलाना तो आसन बात है लेकिन उसे सही ढंग से आगे बढ़ाना मुश्किल।

सिर्फ छोटे शहरों में ही नहीं, बड़े शहरों में भी छोटी-छोटी बस्तियों में बसे लोग गरीबी के चलते अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते। उन्हें शिक्षा मिलती तो है, मगर किताबों कि नहीं बल्कि सिग्नल और स्टेशन पर खड़े होकर भीख मांगने की। शायद इन्हें ही देखकर अंग्रेजों ने भारत को एक गरीब देश की संज्ञा दी है।

शनिवार, 23 जनवरी 2010

कब जागेगी देश की सरकार ?

ऑस्ट्रेलिया में भारतियों पर हो रहे हमले थमने का नाम नहीं ले रहे हें. आये दिन कोई कोई भारतीय इन हमलो का शिकार बन रहा है. कभी किसी की हत्या कर दी जाती है तो कभी किसी भारतीय को जिंदा जलाने की कोशिश की जाती है. हाल तो इतने बुरे हो गए हैं की भारतियों का वहा रहना भी मुहाल हो गया है. इन सबके बीच आखिर क्या कर रही है भारत की सरकार? क्यों अपनी आँखें बंद करके बैठी है? या फिर देखना ही नहीं चाहती वो इस तरफ. अगर मीडिया इस मुद्दे को उजागर करने लिए सामने आती है तो उसे भी चुप कराने की कोशिश की जाती है.

विदेश मंत्री थरूर ने कितनी आसानी से ये कह दिया कि "हमलों के संवेदनशील मुद्दे पर मीडिया सयंम बरते क्यूंकि इससे दोनों देशों के संबंधों पर असर पड़ सकता है". क्या मंत्री जी को उस देश से सम्बन्ध इतने प्यारे हैं जहाँ अपने लोगों पर वार किया जा रहा है. क्या उन्हें वहा बसे भारतियों का दर्द नज़र नहीं रहा? उन्हें पड़ीं है तो बस अपने संबंधों की. इतनी बड़ी घटना पर इतनी हल्की प्रतिक्रिया कहाँ तक जायज़ है? आखिर सरकार इन हमलो के खिलाफ क्यों कोई ठोस कदम उठाती नज़र नहीं रही है? या वो और हमलों का इंतज़ार कर रही है? सिर्फ बयान दे देने से क्या सरकार की ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है?

हाल ही में मेलबर्न में भारतियों के विरुद्ध हुई ताज़ा घटना में एक भारतीय पर चार लोगों ने हमला कर उससे जला दिया। वहीं ऑस्ट्रेलिया इस हमले को नस्लवाद से प्रेरित मानने से ही साफ़ इनकार करता है. ऑस्ट्रेलिया सरकार तो इसके लिए भी सबूत मांग रही है. बहरहाल जो भी हो इन हमलों से ऑस्ट्रेलिया की साख पर तो असर पड़ा ही है साथ ही पूरी दुनिया को ये तो पता चल ही गया है कि खुद को एक उदार, धर्मनिरेपक्ष और लोकतान्त्रिक देश होने का ऑस्ट्रेलिया का दावा कितना खोखला है. भारतीय छात्रों पर हमले होते रहे और ऑस्ट्रलियाई सरकार उन्हें सुरक्षा देने के बुनियादी कर्त्तव्य भी नहीं निभा पायी. हर साल भारत के छात्रों से ऑस्ट्रलियाई सरकार को लगभग आठ हज़ार करोड़ रूपए हासिल होते हैं. शायद ऑस्ट्रेलिया के लोगो को इसी बात की चिंता है की कहीं उनकी नौकरी खतरे में ना पड़ जाये. भारतियों के खिलाफ उनकी यही चिंता शायद जलन क रूप में सामने आ रही है जिसका खामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है वहा बसे भारतियों को.

गंभीर बात तो ये है की इतना सब होने क बाद भी ना तो
ऑस्ट्रलियाई मीडिया और ना ही सरकार ने कोई ख़ास चिंता जताई. उससे शर्मनाक तो भारत की सरकार है, जिसने अपने नागरिकों को ऑस्ट्रेलिया जाने से रोकने के लिए कोई भी निर्देश जारी नहीं किया. याद कीजिये मुंबई पर आतंकवादी हमलों की जब ऑस्ट्रलियाई सरकार ने तुरंत ये आदेश जारी कर दिया था कि वे भारत कि यात्रा ना करे, क्या इससे भी भारत कि सरकार नींद से नहीं जागी है? भारत को भी इन हमलों के खिलाफ़ अपना कड़ा ज़ाहिर करना चाहिए. सरकार को चाहिए कि ऑस्ट्रलियाई सरकार से हमलावरों के खिलाफ़ कड़ी करवाई को गारंटी ले. साथ ही ये सुनिश्चित्त करवाए कि आगे से भारतीय छात्रों पर हमले नहीं होंगे. ऐसा होने पर कम से कम वहा बसे भारतियों को ये विश्वास हो सकेगा कि सरकार बाहर रह रहे नागरिकों कि सुरक्षा करने में सक्षम है. वैसे भी एक के बाद एक हो रहे इन हमलों से भारतियों के अन्दर इतना खौफ़ पैदा हो चुका है कि अब वो ऑस्ट्रेलिया बसने क बारे में सोच ही नहीं रहे. भारतियों का मोह अब ऑस्ट्रेलिया की तरफ से भंग हो रहा है. यही वजह है कि भारतीय छात्रों के वीज़ा के आवेदन संख्या में कमी हो रही है.

भारतीय सरकार तो कोई ठोस कदम उठती नहीं दिख रही है वहीं इसके उलट ऑस्ट्रेलिया में बसे भारतीय छात्रों के एक संगठन ने शेन वॉर्न सहित ऑस्ट्रलियाई क्रिकेट के सभी बड़े सितारों से आग्रह किया है कि वे भारतीय छात्रों पर हुए ताज़ा हमलों कि निंदा करे. अब जब भारतीय सरकार हमलों पर इतनी हल्कीप्रतिक्रिया देगी तो किसी न किसी को तो आगे आना ही पड़ेगा.

ज़रा सोचिये क्या गुज़रती होगी उन मां-बाप के दिल पर जो बड़े अरमानों के साथ अपने बच्चों को विदेश पढने भेजते है? क्या बीतती होगी उन पर जब अपने बच्चों कि पिटाई या हत्या कि खबर वो टीवी पर देखते होंगे? सरकार तो बस अपने रिश्ते सुधारने में लगी है. ऐसे में किससे करें मद्दद कि उम्मीद ?

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

हम आजाद भारत में रहते है !

२६ जनवरी को हम सब ६१वा गणतंत्र दिवस मानाने जा रहे है। खूब धूम के साथ गर्व से मनाया जाता है इस दिन को. भारत देश, जिसके लिए आज़ादी के दीवानों ने बड़ी कीमत अदा की. उन्होंने आज़ादी का सौदा अपनी जान से किया और सन १९५० में हमे ये विश्वास दिलाया की अब हम पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गए है. भारत एक लोकतान्त्रिक देश बन गया था और हम सब आजाद भारत के वासी.

मगर आज ६१ सालों के बाद क्या वाकई में हम ये कह सकते है की हम स्वतंत्र हैं? ये सच है की हमे अंग्रेजों की गुलामी से आज़ादी मिल गयी. मगर क्या आज भी हम और आप गुलामी की ज़िन्दगी नहीं जी रहे? हम उस भारत देश के वासी हैं जहाँ एजुकेशन लोन १२. प्रतिशत और कार लोन १० प्रतिशत ब्याज में मिलता है. यहाँ एक तरफ बस और ट्रेनों के दाम बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर हवाई यात्रा सस्ती होती जा रही है. सब्जियो के दाम आसमान छुते जा रहे हैं और नशीले पदार्थ आधे दामो में बिक रहे है. आम आदमी की ज़रूरत मंहगी और खास आदमी की हर ज़रूरतें सस्ती होती जा रही है. फिर भी हम आजाद भारत में रहते है. आखिर कहा हैं आज़ादी?

घर से निकलते वक़्त हमे ये पता नहीं होता की शाम को सही सलामत लौटेंगें भी या नहीं? हर भीड़-भाड़ वाली जगह में हमें ये डर लगा रहता है कि कहीं कोई धमाका ना हो हो जाये? कही हम किसी आतंकवादी संगठन का निशाना ना बन जाये? क्या इससे कहते हैं आज़ादी?

हमारे देश में हर किसी को स्वतंत्र रूप से बोलने का अधिकार है। मगर जब कोई नेता या अभिनेता किसी के खिलाफ कुछ बोल देता है तो बाद में उसे सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगने पर जोर दिया जाता है। तब कहाँ चला जाता है ये अधिकार? क्या इस स्वतंत्र देश में किसी को अपनी राय देने कि या बात रखने कि भी आज़ादी नहीं है? यूँ तो हमारी मात्र भाषा हिंदी है मगर महाराष्ट्र में हिंदी भाषियों को इसका प्रयोग करने से ही रोका जाता है. क्या इससे कहते हैं आज़ादी? फिर भी हम आजाद भारत में रहते है.

कई लोग सोचते है कि वो आजाद है. अगर हम अपने चारों ओर नज़र घुमा के देखेंगें तो पायेंगें कि कितने ऐसे लोग हैं जो नशे के बंधन से बंधें हैं तो कोई सत्ता के लालच में बंधा हैं.कुछ लोग कहते हैं कि वो अपने परिवार के लिए जीते हैं तो कुछ किसी कम्पनी या संस्था के लिए कार्य करने बंधन से बंधें हैं. क्या हम सच में आजाद हैं?

पुराने रीति-रिवाजों के नाम पर आज भी ऊँची-नींची जातियां देखकर लोगों को समाज में रहने का दर्ज़ा दिया जाता है. फिर भी हम खुद को स्वतंत्र कहते हैं. दो अलग-अलग जाती के लोग एक नहीं हो सकते, प्यार करते हैं तो मार दिए जाते है. क्या हम इसी भारत देश में रहते है जहाँ भगवान राधा-कृष्ण ने प्यार के मायने समझाए थे? आज तो यहाँ किसी को प्यार करने कि भी आज़ादी नहीं है. आखिर कहाँ है आज़ादी? आज भी माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य खुद चुनते हैं. क्लास में सबसे अच्छे नंबर लाने का दबाव डालते हैं. उन्हें क्या बनना है, कौन सी रह पकड़नी है, और तो और किससे शादी करनी है ये भी माता-पिता ही तय करते है. कुछ बच्चे तो इस दबाव में अपनी जान तक गँवा बैठते हैं. क्या ये बच्चे सच में आजाद हैं?

हमारे देश में औरतों और मर्दों को बराबरी का दर्ज़ा दिया जाता है. लेकिन कुछ समय पहले आई एक फिल्म में आपत्तिजनक द्रश्यों को लेकर फिल्म की अभिनेत्री को एक दल ने साड़ी तोहफे में दे डाली उसके खिलाफ नारे लगाये गए. वहीँ फिल्म के अभिनेता को किसी ने धोती या शर्ट नहीं भिजवाई. क्यों? जबकि सेंसर बोर्ड उस द्रश्य को पास कर चुका था. क्या आजाद भारत में आज भी नारी मर्दों की गुलामी में कैद है? कुछ स्त्रियों के पास तो ये चुनाव करने की भी आज़ादी नहीं होती कि वे अपना जीवन किस प्रकार जियें? पहले पिता फिर पति और उसके बाद बेटों के सहारे वो अपनी पूरी ज़िन्दगी बिता देतीं हैं. क्या वो खुद को स्वतंत्र कह सकती हैं?

मगर कुछ लोग तो ऐसे भी है जो पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं. मसलन ८० प्रतिशत गावों में डाक्टर्स को काम करने कि आज़ादी है. आज ऐसा समय गया है जब हमे अपनी आज़ादी कि कीमत टैक्स के रूप में सरकार को चुकानी पड़ती है.एक भिखारी भी जब दुकान से साबुन खरीदता है तो टैक्स चुकता है. क्योकि आज आज़ादी मुफ्त में नहीं मिलती. ये भी बिकाऊ और मंहगी हो गयी है. तो वही सरकार से जूड़े लोगो को आज़ादी है कि वो जनता की कमाई से जगह-जगह खुद की प्रतिमाएं स्थापित करे. आतंकवादियों को ये आज़ादी है की वो जब और जहाँ चाहे बम गिराकर लोगो की जानें लेले. मीडिया आजाद है की वो किसी की भी निजी ज़न्दगी पर हमला कर दे. पुलिस के पास किसी को भी गुनेहगार साबित करने की आज़ादी है. तो वही गुनहगारों को बिना किसी डर के खुलेआम घुमने की आज़ादी है.

आज सबके लिए आज़ादी के अलग-अलग मायने है. फिर भी हम आजाद भारत में रहते हैं.हमारा देश तो ६१ साल पहले ही लोकतान्त्रिक देश बन गया था मगर यहाँ के वासी आज भी किसी किसी के गुलाम ही हैं.