मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

ये 'ससुराल' नामक जगह "घर" कैसे हुई?

कुछ समय पहले मैंने "घर" के ऊपर कुछ लाइन्स कहीं से उठा कर लिखी थीं. बहुत ही सुन्दर परिभाषा थी वो "घर" की. आज उसे ही आगे बढ़ा रहीं हूँ लेकिन अपने शब्दों में, आस-पास के विचारों और ज़िन्दगियों से सीखते हुए. इसलिए इसे सिर्फ मेरी ज़िन्दगी से न जोड़े। हो सकता है, सबके साथ ऐसा न भी होता हो. और हो सकता है कुछ लोग इससे सीधा रिलेट करें. अगर इस पोस्ट पर लोगों द्वारा ज्ञान की लम्बी गंगा बह निकले तो कोई हैरानी वाली बात नहीं होगी। क्यूंकि बहुत से लोगों की भावनाएं भी आहत हो सकती हैं और हो सकता है कुछ लोग मुझसे सहमत भी हों. इसलिए डिस्क्लेमर पहले ही दे दिया है. 

सही लिखा था, "घर" वो होता है जहाँ हम अपने हिसाब से अपने स्वाभाविक रूप में रह सकते है. पर उस लेख को शेयर करने के बाद मन में यह ख्याल आया कि एक लड़की का असली "घर" कौन सा होता है. वो, जिसमें एक लड़की पैदा होती है, जहाँ के आँगन में खेल कर वह बड़ी होती है, जहाँ उसके नखरे उठाये जाते हैं, उसे कोई रोक-टोक नहीं होती, वह जैसे चाहे वैसे कपड़े पहनती है, उठती-बैठती है। बर्थ सर्टिफिकेट से लेकर हायर डिग्री की मार्कशीट्स तक में पते के स्थान में वो अपने "घर" का पता भर्ती है. 

मगर एक दिन उसकी शादी हो जाती है. उसे एहसास होता है कि बचपन से जिस जगह को वो अपना "घर" समझती थी वो एक पल में ही उसका 'मायका' बन चुका है. पलभर में उसका पता बदल जाता है. उसकी जगह बदल जाती है. हमेशा से गाहे-बगाहे सबके मुँह से वो सुनती आयी थी कि पति का "घर" ही उसका "घर" है, अपने "घर" जाना तो सारे अरमान पूरे कर लेना। जिस नई जगह को वो अपना "घर" समझ कर गृह प्रवेश करती है, वहां पहुँचते ही उसे पता चलता है कि ये तो उसका 'ससुराल' है. यहाँ वो अपने मन से कपड़े नहीं पहन सकती, साड़ी ही पहननी पड़ेगी क्यूंकि ये तो ससुराल है. वहां से बाहर निकलना है तो सर पे पल्लू रखना अनिवार्य है, वर्ना पड़ोसी क्या बोलेगे, क्यूंकि ये तो ससुराल है, वो अपनी मर्ज़ी से उठ-बैठ नहीं सकती क्यूंकि ससुराल वाले क्या सोचेंगे। यहाँ कुछ भी बोलने के पहले उसे सौ बार सोचना पड़ेगा, कहीं कोई बुरा न मान जाये, क्यूंकि ये तो ससुराल है, यहाँ कोई उसके नखरे नहीं उठाएगा बल्कि सबके नखरे उसे उठाने हैं क्यूंकि ये तो ससुराल है. और इन सब के बाद भी उसे बोला जाता है कि तुम अभी तक इसे अपना "घर" नहीं मान पायी। 

अब सवाल यह उठता है की ये कैसा "घर" है? यहाँ तो उसका स्वाभाविक रूप ही खतम हो गया. यहाँ वो अपने मूल रूप में नहीं रह सकती। अपने पसंद के काम नहीं कर सकती। जैसे चाहे वैसे कपड़े  पहन कर नहीं रह सकती। यहाँ वो अपने मन से नहीं बल्कि दूसरो की पसंद को ध्यान में रखकर जीती है. सुबह उठने से लेकर रात में सोने तक दूसरों के हिसाब से सब करती है. तो फिर ये 'ससुराल' नामक जगह "घर" कैसे हुई? सच के साथ रहने का सबसे आसान तरीका अचानक से इतना मुश्किल कैसे हो गया? आखिर "अपना घर" गया कहाँ?    

सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

शिकायत को दिल से न लगाना



शिकायत, बड़ा ही अजीब शब्द है ये। परायों से हो तो हमें फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन अपनों से हो तो दिल दुखा देती है। बहुत कुछ मिलता है शिकायत के बदले। माँ से हो तो बदले में डांट पड़ जाती है. भाई-बहन के बीच हो तो दीवार बना देती है. दोस्त से शिकायत हो तो यारी में दरार डाल देती है. पुलिस से करो तो जेल करवा देती है. टीचर से करो तो सज़ा दिलवा देती है. बॉस से कर दो तो नौकरी से निकलवा देती है. पति-पत्नी के बीच हो तो तलाक़ भी करवा सकती है. किसी की शादी में हो तो किस्सा बन जाती है. ज़िन्दगी से हो तो मौत से मिलवा देती है. अनकही हो तो अंदर तक झकझोर देती है. सरकार से हो तो तख़्तो-ताज हिला देती है. ईश्वर से हो तो खुद से जुदा कर देती है। 

हर शिकायत का अपना एक अंदाज़ होता है. प्यार भरी हो तो रूठे को मना लेती है। नफ़रत भरी हो तो रिश्तों को उजाड़ देती है। कभी लगता है शिकायत करेंगे तो बात बिगड़ जाएगी। कभी लगता है चुप रहेंगे तो बात दिल में रह जाएगी। शिकायत भी अपनी उम्र लेकर आती है, कम समय के लिए हो तो कम तकलीफ़ पहुँचती है, उम्र लम्बी हो जाये तो नफरत बन जाती है। व्यव्हार में हो तो आदत बन जाती है।

ज़रूरी है शिकायत का दूर हो जाना। बिगड़े रिश्तों का फिर से बन जाना। रूठों को फिर से मना लेना। दोस्त को फिर से यार बना लेना। शिकायत की उम्र छोटी से और छोटी कर देना। ज़रूरी है शिकायत को दिल से न लगाना।

सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

आखिर क्या चलता है मन के मन में

क्या है ये मन, 
कभी चंचल, कभी गंभीर
तो कभी सोच के सागर में
डुबकियां लगता है ये मन
कभी खुद से बिगड़ जाता है
तो कभी खुद को ही
मना लेता है ये मन
कभी चलती हैं ढेरों बातें इसके अंदर
तो कभी शांत समंदर बन जाता है ये मन

क्या है ये मन
कभी उथल पुथल में घिर जाता है
तो कभी बच्चे सा
मासूम हो जाता है ये मन
कभी बदलने को राज़ी नहीं होता
तो कभी पल भर में
बदल जाता है ये मन
आखिर क्या चलता है मन के मन में

कभी सब जान कर भी
अनजान बन जाता है
तो कभी सच का आईना
दिखा देता है ये मन
कभी सवालों का बवंडर बन उमड़ पड़ता है
तो कभी खुद ही
जवाब बन जाता है ये मन
कभी खुद ही घाव लेकर
खुद से ही मरहम लगता है ये मन
आखिर क्या है ये मन


बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

बच्चों के मायूस चेहरों से सजी दिवाली

दिवाली, खुशियों का, उजालों का, माँ लक्ष्मी के आगमन का, झिलमिलाता त्यौहार है दिवाली।

लेकिन इस बार दिवाली पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ग्रहण लग गया है. घर के बच्चे मायूस हैं. जहाँ एक ओर भारत भर में बच्चे पटाखे फोड़ रहे होंगे वहीं दिल्ली एनसीआर के बच्चे पूजा करके चुप-चाप दूसरे बच्चो को टीवी पर पटाखे जलाते देखेंगे। और बड़ी मासूमियत से अपने माता-पिता से पूछेंगे की हम पटाखे क्यों नहीं जला सकते ? अब माता- पिता उन्हें समझाए भी तो क्या...

सच है कि पटाखों से प्रदूषण फैलता है... लेकिन क्या ये पूरा सच है ? क्या दिल्ली एनसीआर में सिर्फ पटाखों की वजह से प्रदूषण फैलता है ? क्या गाड़ियों से निकलने वाला धुआं दिल्ली की आबो-हवा में हर रोज़ ज़हर नहीं घोलता ? क्या पास के शहरों के खेतों में लगी आग, दिल्ली में लोगों की साँसे नहीं रोकती ? मगर साल में सिर्फ एक बार आने वाला त्यौहार दिल्ली में प्रदूषण फैला देता है. छोटे-छोटे बच्चों की खुशियां जो एक फूलझड़ी देख कर बढ़ जाती है, वो दिल्ली में ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं. या फिर वो छोटे व्यापारी जो साल भर दिवाली का इंतज़ार करते हैं कि उनकी कुछ कमाई हो जाये और वो भी अपने घर में खुशियां बाँट सकें, वो ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं. क्या केवल दिल्ली शहर इतना नाज़ुक है की पटाखों के धुएं को न झेल पाए और बाकी शहर इतने शक्तिशाली कि उन्हें पटाखों के धुएं से कोई फर्क ही नहीं पड़ता ?

बचपन में जब घर के बड़े सीको, फूलझड़ी, अनार, चकरघिन्नी जैसे पटाखे लेकर आते थे, तो हमारा मन मचल उठता था। हम शाम के इंतज़ार में बेचैन रहते, कि कब पूजा होगी और कब हमें पटाखे जलाने को मिलेगें। मगर इस दिवाली हम अपने घर के बच्चों के मायूस चेहरों को देखेंगे और पूजा के बाद मिल कर कोसेंगे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को.

जब हम बड़े ही इस फैसले को नहीं समझ पा रहे तो आखिर बच्चों को समझाएं भी तो क्या ?????



बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

दिल्ली तेरी मेट्रो में, सभी बेहाल हैं


भांति-भांति के चेहरे
भांति-भांति के लोग हैं 
दिल्ली तेरी मेट्रो में
रोज़ चढ़ते लाखों लोग हैं 

कोई जल्दबाज़ी में है, तो कोई परेशान है
सीट पाने की होड़ में
हर कोई खोता अपनी पहचान है
होते हैं वो खुशनसीब
मिल जाती जिनको सीट है
बाकियों के नसीब में
भीड़ के धक्के और तकलीफ़ है

अपनी मंज़िल तक पहुंचने में 
लड़ते सभी एक जंग हैं
लोगो की भीड़ को पार करने में 
हो जाते सभी बदरंग हैं
सुबह जो चेहरे खिले होते हैं
शाम को वो निढाल हैं
दिल्ली तेरी मेट्रो में
सभी के हाल बेहाल हैं

किसी की अपनी ख़ुशी है
तो किसी की अपनी मजबूरी 
किसी को दिल्ली अपना लेता
तो कोई दिल्ली का बन जाता है
क्यूंकि पानी है मंज़िल अगर
तो मेट्रो से ही जाना है
दिल्ली तेरी मेट्रो में
न किसी का कोई ठिकाना है

चढ़ता है यहाँ जोड़े में कोई 
तो बॉस से कोई परेशान है 
मोबाइल में इयरफ़ोन लगाकर 
सभी यहाँ अनजान हैं 
जाना है घर किसी को 
तो किसी को काम पे जाना है 
दिल्ली तेरी मेट्रो से 
लोगों का नाता पुराना है 

पल-पल बढ़ते किराये के हाथों
मजबूर है हर कोई
कोसते रहते हैं सिस्टम को
फिर भी उपाय न सूझे कोई 
सफ़र करना सबकी 
मजबूरी बन जाता है
दिल्ली तेरी मेट्रो में 
किराया कभी भी बढ़ जाता है 

ट्रैफिक का हाल देखकर 
सबको मेट्रो याद आती है 
भूल जाते है बढ़ा किराया 
बस अपनी मंज़िल याद रह जाती है 
चुप चाप चढ़ जाते हैं फिर भी 
सारी महंगाई भूल कर 
दिल्ली तेरी मेट्रो में
अब कुछ तो किराया कम कर 



सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

तेरे प्यार में हम अपना शहर छोड़ आए


तेरे प्यार में हम अपना शहर छोड़ आए
बचपन से भरा वो आँगन छोड़ आए
होती थी सुबह जहाँ आंखें मलते-मलते
माँ के आँचल में नख़रे करते-करते
ममता से भरा वो आँचल छोड़ आए
तेरे प्यार में अपना शहर छोड़ आए

जहाँ हर गली से थी पहचान मेरी
गाड़ी की रफ़्तार से होती थी बातें मेरी
कुछ दूर पर था सहेलियों का ठिकाना
हर मौके पर हो जाता था मिलना-मिलाना
सहेलियों की वो खट्टी-मीठी बातें छोड़ आए
तेरे प्यार में हम अपना शहर छोड़ आए

जहाँ होती थी शाम कभी गंगा किनारे
डूबते सूरज को निहारते थे घंटों किनारे
मिलते थे जहाँ गोलगप्पे मटर वाले 
परिवार संग लगते थे चाट के चटखारे 
हम गोलगप्पे की वो मटर छोड़ आये 
तेरे प्यार में हम अपना शहर छोड़ आए