शिकायत, बड़ा ही अजीब शब्द है ये। परायों से हो तो हमें फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन अपनों से हो तो दिल दुखा देती है। बहुत कुछ मिलता है शिकायत के बदले। माँ से हो तो बदले में डांट पड़ जाती है. भाई-बहन के बीच हो तो दीवार बना देती है. दोस्त से शिकायत हो तो यारी में दरार डाल देती है. पुलिस से करो तो जेल करवा देती है. टीचर से करो तो सज़ा दिलवा देती है. बॉस से कर दो तो नौकरी से निकलवा देती है. पति-पत्नी के बीच हो तो तलाक़ भी करवा सकती है. किसी की शादी में हो तो किस्सा बन जाती है. ज़िन्दगी से हो तो मौत से मिलवा देती है. अनकही हो तो अंदर तक झकझोर देती है. सरकार से हो तो तख़्तो-ताज हिला देती है. ईश्वर से हो तो खुद से जुदा कर देती है।
हर शिकायत का अपना एक अंदाज़ होता है. प्यार भरी हो तो रूठे को मना लेती है। नफ़रत भरी हो तो रिश्तों को उजाड़ देती है। कभी लगता है शिकायत करेंगे तो बात बिगड़ जाएगी। कभी लगता है चुप रहेंगे तो बात दिल में रह जाएगी। शिकायत भी अपनी उम्र लेकर आती है, कम समय के लिए हो तो कम तकलीफ़ पहुँचती है, उम्र लम्बी हो जाये तो नफरत बन जाती है। व्यव्हार में हो तो आदत बन जाती है।
ज़रूरी है शिकायत का दूर हो जाना। बिगड़े रिश्तों का फिर से बन जाना। रूठों को फिर से मना लेना। दोस्त को फिर से यार बना लेना। शिकायत की उम्र छोटी से और छोटी कर देना। ज़रूरी है शिकायत को दिल से न लगाना।
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