बुधवार, 29 नवंबर 2017

सुरकंडा देवी मंदिर- जहाँ 10 हज़ार फीट पर पहुंचना अपनी ज़िद बन गई



एक ब्लॉगर हूं, इसलिए जब भी
कोई नया अनुभव करती हूँ तो उसे शब्दों में पिरोकर ब्लॉग लिखने में ज्यादा समय नहीं लगाती। पिछले दिनों शादी की पहली सालगिरह के मौके पर मसूरी घूमना हुआ. यूं तो मसूरी में एक से एक गज़ब के नज़ारे देखे। मगर टिहरी डैम से वापस आते समय जब ड्राइवर ने सुरकंडा देवी मंदिर के दर्शन करने को बोला तो हमने सोचा, इतनी दूर आए हैं तो क्यों न देवी के दर्शन भी कर लिए जाए. हमे कोई अंदाज़ा नहीं था कि मंदिर का रास्ता कितना लम्बा है, चढ़ाई कितनी ऊंची है, या फिर मंदिर की क्या मान्यता है. हमने बस ड्राइवर की बात सुनी और चंद पलों में यह डिसाइड कर लिया कि मंदिर जाके दर्शन करने है.

कुछ सीढ़ियां चढ़ने के बाद ही मेरी नज़रें मंदिर को ढूढ़ने लगी. सिर उठा के देखा तो मंदिर बहुत ऊंचाई पर था. एक पल को लगा क्या मंदिर जाने का फैसला सही है. क्यूंकि तब तक थकान हमारे सर चढ़ कर बोल रही थी और हमें मंदिर से जुड़ी कहानी का कोई अता-पता नहीं था. कुछ कदम चलने पर ही सामने बोर्ड दिखा जिस पर लिखा था कि, "जब सती माता ने अपने पिता द्वारा महादेव का अपमान होने पर यज्ञ की अग्नि में आहुति दे दी तब महादेव ने उग्र हो उनके शरीर को अपने त्रिशूल में उठा कर आकाश भ्रमण किया। इस दौरान सती माता का सिर गल कर इस स्थान पे गिरा। जिसके बाद यह स्थान सुरकंडा देवी मंदिर कहलाया।" दो से ढाई किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़ने के बाद, बहुत से कष्टों को पार करते हुए जब ऊपर पहुंचे तब पता चला कि ये मंदिर समुद्र तल से लगभग 10 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है. मंदिर में माता के दर्शन करके मन को एक अलग ही सुकून मिला। खूबसूरत नाज़ारों ने जैसे सारी थकान पल भर में ग़ायब कर दी. उस समय मंदिर की चौखट पर बैठकर शांत मन के आँगन में कुछ शब्दों ने मुझसे दोस्ती कर ली और ले लिया इस कविता का रूप:






पहाड़ था सीधा रास्ते थे सख्त 
पर चढ़ना अपनी ज़िद थी,
थक गया था शरीर टूट गया था हौसला
पर चढ़ना अपनी ज़िद थी,
दिल ने कहा अब बस कर 
हिम्मत ने कहा अब और नही 
पर चढ़ना अपनी ज़िद थी,
अंधेरा छाया आंखों के सामने
और धड़कनें भी तेज़ हो गई
पैरों ने भी दे दिया जवाब 
पर चढ़ना अपनी ज़िद थी,
हर मुश्किल को छोड़ कर पीछे
ज़िद को पकड़ कर साथ
न रुकने का फैसला लिए
जब साथी ने पकड़ा हाथ
तब दिल ने माना ज़िद करना 
इतनी भी बुरी बात नहीं
आखिर पहाड़ो की ऊंचाई
इतनी भी आसान चढ़ाई नहीं
दृश्य था अद्धभुत नज़ारे थे मनोरम
हार गई थकान जीत गया था मनोबल 
एक सुकून सा मिला दिल को
लक्ष्य के पास पहुँचकर
लगा जैसे पा लिया सबकुछ
उस चौखट को छूकर
गुज़रे थे महादेव जहां से
प्रिय सती को काँधे पर रख
गिरा था उनका शीश गल कर
सुरकंडा वो कहलाया स्थल

10 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. थैंक यू रवि...ऊपर जेक वाकई लगा की फैसला सही था...

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  2. उत्तर
    1. देवी माँ का बुलावा आया था... हौसला तो अपने आप आ ही जाना था...

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