शनिवार, 4 जुलाई 2015

ज़िन्दगी…

मैं जीती हूँ रोज़ एक नई ज़िन्दगी…
एक ख़्वाब मुट्ठी में लिए
सख़्त राहों पर चलते हुए,
उम्मीद का दामन थामे
मैं करती हूँ ख़ुदा से रोज़ एक नई बन्दगी…
कभी ना रुकने की सोचे
हर गलती से नई सीख़ लेते हुए
मैं तो जीती हूँ रोज़ एक नई ज़िन्दगी…
मिलते हैं ज़माने में लोग कई
हर राह का ज़रिया बनके
हर उस कड़ी को समेटते हुए
मैं निकलती हूँ रोज़ लेकर एक सुबह नई…
मैं तो जीती हूँ रोज़ एक नई ज़िन्दगी…

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