कुछ दिन पहले मैं अपने कॉलेज की Alumni Meet में गयी थी। जहाँ मैंने पत्रकारिता के शुरुआती दांव-पेंच सीखे। मेरे बैच के साथ सभी पुराने बैच के Students आये हुए थे। अच्छा लगता है जब पुराने लोग मिलते है। पुरानी यादें ताज़ा होती है।
खैर, हम सभी को एक एक करके स्टेज पर अपने अनुभव बाँटने के लिए बुलाया गया। मुझसे पहले मेरे कई सीनियर्स ने अपने अपने अनुभव बाँटने शुरू किये। साथ ही कॉलेज की तारीफ में लम्बे लम्बे कसीदे गढ़ने लगे। अच्छा भी था, अब किसी के घर घुसकर उस के सामने उसी की बुराई तो नहीं कर सकते ना।
कॉलेज की तारीफें सुनते सुनते कब मेरा नंबर भी आ गया पता ही नहीं चला। धम्म से मेरे हाथ में भी माइक पकड़ा दिया गया। सब मेरी तरफ ऐसे घूर घूर के देख रहे थे जैसे मैं कॉलेज चालीसा पढ़ने जा रही हूँ। हालाँकि जब बात मेरे अपने अनुभव की थी तो कॉलेज की तारीफ करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। पर मौके की नज़ाकत को देखते हुए मैंने भी कुछ एक शब्द कॉलेज के गुणगान में गा दिए।
लेकिन मैं तो ठहरी मैं, जिस तरह झूठ बोलते वक़्त किसी बच्चे की ज़ुबान लड़खड़ा जाती है, ठीक उसी तरह मेरी ज़ुबान से भी मानो शब्दों ने लड़ाई कर ली हो। अगर वहां मौजूद किसी भी शख्स को चेहरा पढ़ना आता होगा तो बिना देर लगाये वो समझ गया होगा कि मेरी ज़ुबान और आँखें दोनों ही अलग अलग बातें कर रही हैं।
मेरे ज़ेहन में तो बस उस समय मेरा लिखा हुआ वो पोस्ट याद आ रहा था जो वास्तविकता में मेरा अनुभव बयां करता है। http://news.bhadas4media.com/index.php/creation/1070-2012-04-05-12-48-48
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