कुछ
एहसास बहुत ख़ास होते है, और जब वो हमारी उमस भरी ज़िन्दगी में दस्तक देते है तो
बारिश की एक बूँद भी हमें प्यार के कई रंगों में भिगो देती है... वो पल जिसमें हमें
किसी की ज़िन्दगी बन जाने का एहसास होता है... किसी के लिए आम से ख़ास होने का एहसास
होता है... किसी की नज़रों में खुद के लिए प्यार देखने का एहसास होता है... अचानक
से किसी के लिए उसका वक़्त बन जाने का एहसास होता है... कुछ पलों में ही पूरी
ज़िन्दगी को सपनों में उतार लेने का एहसास होता है... खुली आँखों से देखे सपने सच
होने का एहसास होता है... ये एहसास ही तो है जो ज़िन्दगी में आने वाले ख़ास लम्हों
को दिल में एक नई जगह देता है... ये एहसास ही तो है जो किसी के दूर होने पर भी
उसके पास होने का एहसास देता है... जो किसी के इंतज़ार को भी ख़ास बना देता है... जो
प्यार को भी प्यार करना सिखा देता है... और किसी के अपने सिर्फ अपने होने का एहसास
करा देता है...
ख़्वाबों को कोई तस्वीरों में कैसे क़ैद करे, ये तो उड़ते हैं मन के आँगन में, लब्ज़ बना कर ख्वाबों को कोई कैसे बयां करे
शुक्रवार, 20 नवंबर 2015
शनिवार, 4 जुलाई 2015
ज़िन्दगी…
मैं जीती हूँ रोज़ एक नई ज़िन्दगी…
एक ख़्वाब मुट्ठी में लिए
सख़्त राहों पर चलते हुए,
उम्मीद का दामन थामे
मैं करती हूँ ख़ुदा से रोज़ एक नई बन्दगी…
कभी ना रुकने की सोचे
हर गलती से नई सीख़ लेते हुए
मैं तो जीती हूँ रोज़ एक नई ज़िन्दगी…
मिलते हैं ज़माने में लोग कई
हर राह का ज़रिया बनके
हर उस कड़ी को समेटते हुए
मैं निकलती हूँ रोज़ लेकर एक सुबह नई…
मैं तो जीती हूँ रोज़ एक नई ज़िन्दगी…
एक ख़्वाब मुट्ठी में लिए
सख़्त राहों पर चलते हुए,
उम्मीद का दामन थामे
मैं करती हूँ ख़ुदा से रोज़ एक नई बन्दगी…
कभी ना रुकने की सोचे
हर गलती से नई सीख़ लेते हुए
मैं तो जीती हूँ रोज़ एक नई ज़िन्दगी…
मिलते हैं ज़माने में लोग कई
हर राह का ज़रिया बनके
हर उस कड़ी को समेटते हुए
मैं निकलती हूँ रोज़ लेकर एक सुबह नई…
मैं तो जीती हूँ रोज़ एक नई ज़िन्दगी…
बुधवार, 4 मार्च 2015
क्यों न थोड़े मतलबी हो जाये...
क्यों न थोड़े मतलबी हो जाये...
सुबह ऑफिस जाने की जल्दी, दिनभर काम की
भागा-दौड़ी... कुछ याद है, परिवार संग यूँ ही गप्पे लड़ाते हुए आखिरी बार
कब चाय का प्याला हाथ मे लिया था... कभी टीवी तो कभी स्मार्ट फोन की दुनिया
मे मस्त, कुछ याद है आखिरी बार कब खुली हवा मे किसी अपने के साथ चंद पल
गुजारे थे...सबको खुश करने के फेर मे चेहरे पर बनावटी मुस्कान लिए, कुछ याद
है आखिरी बार कब सच्ची मुस्कुराहट को जिया था...
कुछ याद है आखिरी बार कब जिये थे, वो सुकून भरे पल... आखिरी बार कब हुए थे थोड़ा मतलबी...
मंगलवार, 3 मार्च 2015
ख़ामोशी...
ख़ामोशियों की भी अपनी एक भाषा होती है,
कुछ ख़ामोशियाँ दिल की ज़ुबान बनके सब कुछ कह जाती है,
तो कुछ कानों में चुभती आवाज़ बन जाती है…
कुछ ख़ामोशियाँ इज़हार का बहाना तो कुछ इंकार बन जाती है,
कभी प्यार में डूबी हुई, तो कभी रूठने का इशारा बन जाती है ख़ामोशी...
यूँ तो भाषा की परख रखने वाले पढ़ लेते है नज़रों को भी,
पर ख़ामोशी को पढ़ना भी तो, कभी कभी ज़रुरत बन जाती है…
ज़रूरी नहीं ख़ामोशी का मतलब इकरार ही हो
बंद ज़ुबान से इंकार का पैग़ाम भी बन जाती है ख़ामोशी..........
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