बुधवार, 29 नवंबर 2017

सुरकंडा देवी मंदिर- जहाँ 10 हज़ार फीट पर पहुंचना अपनी ज़िद बन गई



एक ब्लॉगर हूं, इसलिए जब भी
कोई नया अनुभव करती हूँ तो उसे शब्दों में पिरोकर ब्लॉग लिखने में ज्यादा समय नहीं लगाती। पिछले दिनों शादी की पहली सालगिरह के मौके पर मसूरी घूमना हुआ. यूं तो मसूरी में एक से एक गज़ब के नज़ारे देखे। मगर टिहरी डैम से वापस आते समय जब ड्राइवर ने सुरकंडा देवी मंदिर के दर्शन करने को बोला तो हमने सोचा, इतनी दूर आए हैं तो क्यों न देवी के दर्शन भी कर लिए जाए. हमे कोई अंदाज़ा नहीं था कि मंदिर का रास्ता कितना लम्बा है, चढ़ाई कितनी ऊंची है, या फिर मंदिर की क्या मान्यता है. हमने बस ड्राइवर की बात सुनी और चंद पलों में यह डिसाइड कर लिया कि मंदिर जाके दर्शन करने है.

कुछ सीढ़ियां चढ़ने के बाद ही मेरी नज़रें मंदिर को ढूढ़ने लगी. सिर उठा के देखा तो मंदिर बहुत ऊंचाई पर था. एक पल को लगा क्या मंदिर जाने का फैसला सही है. क्यूंकि तब तक थकान हमारे सर चढ़ कर बोल रही थी और हमें मंदिर से जुड़ी कहानी का कोई अता-पता नहीं था. कुछ कदम चलने पर ही सामने बोर्ड दिखा जिस पर लिखा था कि, "जब सती माता ने अपने पिता द्वारा महादेव का अपमान होने पर यज्ञ की अग्नि में आहुति दे दी तब महादेव ने उग्र हो उनके शरीर को अपने त्रिशूल में उठा कर आकाश भ्रमण किया। इस दौरान सती माता का सिर गल कर इस स्थान पे गिरा। जिसके बाद यह स्थान सुरकंडा देवी मंदिर कहलाया।" दो से ढाई किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़ने के बाद, बहुत से कष्टों को पार करते हुए जब ऊपर पहुंचे तब पता चला कि ये मंदिर समुद्र तल से लगभग 10 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है. मंदिर में माता के दर्शन करके मन को एक अलग ही सुकून मिला। खूबसूरत नाज़ारों ने जैसे सारी थकान पल भर में ग़ायब कर दी. उस समय मंदिर की चौखट पर बैठकर शांत मन के आँगन में कुछ शब्दों ने मुझसे दोस्ती कर ली और ले लिया इस कविता का रूप:






पहाड़ था सीधा रास्ते थे सख्त 
पर चढ़ना अपनी ज़िद थी,
थक गया था शरीर टूट गया था हौसला
पर चढ़ना अपनी ज़िद थी,
दिल ने कहा अब बस कर 
हिम्मत ने कहा अब और नही 
पर चढ़ना अपनी ज़िद थी,
अंधेरा छाया आंखों के सामने
और धड़कनें भी तेज़ हो गई
पैरों ने भी दे दिया जवाब 
पर चढ़ना अपनी ज़िद थी,
हर मुश्किल को छोड़ कर पीछे
ज़िद को पकड़ कर साथ
न रुकने का फैसला लिए
जब साथी ने पकड़ा हाथ
तब दिल ने माना ज़िद करना 
इतनी भी बुरी बात नहीं
आखिर पहाड़ो की ऊंचाई
इतनी भी आसान चढ़ाई नहीं
दृश्य था अद्धभुत नज़ारे थे मनोरम
हार गई थकान जीत गया था मनोबल 
एक सुकून सा मिला दिल को
लक्ष्य के पास पहुँचकर
लगा जैसे पा लिया सबकुछ
उस चौखट को छूकर
गुज़रे थे महादेव जहां से
प्रिय सती को काँधे पर रख
गिरा था उनका शीश गल कर
सुरकंडा वो कहलाया स्थल

बुधवार, 8 नवंबर 2017

नोटबंदी के बीच फंसी "मेरी शादी"


पिछले साल नवंबर के महीने में दो बड़ी घटनाएं घटी थी. पहली आज है, नोटबंदी की सालगिरह और दूसरी कुछ दिन बाद है, मेरी शादी की सालगिरह. जहाँ नोटबंदी ने पूरे देश के लोगों में भूचाल ला दिया वहीं शादी का समय नज़दीक होने के चलते दोनों परिवारों की ज़िन्दिगियों में भी भूचाल आ गया था. वजह वही थी, नोटबंदी. शादी में सिर्फ़ 17 दिन बचे थे और मैरिज हॉल से लेकर केटरर्स, फ़ोटोग्राफर और बैंड वालों सहित बहुत से कामों के बिल पेंडिंग थे. सभी को कैश में पेमेंट चाहिए थी. क्यूंकि पक्के बिल बनाने से सभी बच रहे थे. सच बात तो ये थी कि कानपुर शहर में सारे बिल की पेमेंट चेक या कार्ड से हो भी नहीं सकती थी. कैश ज़रूरी था. ऐसे में पापा और मामा का बीपी हाई होना शुरु हो चुका था. वो सोच में पड़ गए थे कि अब क्या होगा?

और फिर शुरू हुआ बैंक के चक्कर लगाने का चक्कर. नोट बदलने और कैश निकालने की आफ़त. वहां भी एक बार में ज़्यादा नोट नहीं बदल सकते थे और न ही ज़्यादा रूपए निकल सकते थे. किस्मत से मुझे लाइन में कभी नहीं लगना पड़ा. क्यूंकि सरकार ने इस बात की सहूलियत दे दी थी कि जिसकी शादी है वो अगर शादी का कार्ड दिखायेगा तो उसे बैंक में डायरेक्ट एंट्री मिल जाएगी। मैंने भी इसी सहूलियत का फायदा उठाया और लाइन से छुटकारा पाकर पहली बार किसी बैंक में वी.आई.पी ट्रीटमेंट पाया। कुछ ऐसा ही हाल मेरी ससुराल में भी हो रखा था.

घर में सब अक्सर कहते हैं कि सोनी का काम हो और कोई ट्विस्ट न आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता. फिर तो ये मेरा सबसे बड़ा काम था, मेरी 'शादी' थी.  नोटबंदी के बाद तो मेरे पतिदेव भी इस बात पर थोड़ा-थोड़ा विश्वास कर करने लग गए थे. ;-) ;-) ;-) ;-) ;-) ख़ैर, जब बैंक की लिमिट भी ख़तम हो गयी तो उसके बाद शुरू हुआ कानपुर का ऐतिहासिक तरीका "जुगाड़". सच में, हम कानपुर वालों के लिए जुगाड़ बिना फेल हुए हमेशा काम करता है. हमने अपने रिश्तेदारों के अकाउंट में पैसा  ट्रांसफर किया और लगा दिया सबको बैंक की लाइन में. पहली बार नोटबंदी ने यह एहसास करा दिया था कि बेटी की शादी में सिर्फ पिता को ही नहीं सारे रिश्तेदारों को अपनी चप्पलें घिसनी पड़ती है. जैसे-तैसे शादी निपट गई और इस महीने मेरी शादी की घटना को पूरे एक साल भी हो जायेंगे लेकिन आज नोटबंदी की सालगिरह ने उन सभी यादों को ताज़ा कर दिया जो उस समय किसी समस्या से कम नहीं थीं.   

मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

ये 'ससुराल' नामक जगह "घर" कैसे हुई?

कुछ समय पहले मैंने "घर" के ऊपर कुछ लाइन्स कहीं से उठा कर लिखी थीं. बहुत ही सुन्दर परिभाषा थी वो "घर" की. आज उसे ही आगे बढ़ा रहीं हूँ लेकिन अपने शब्दों में, आस-पास के विचारों और ज़िन्दगियों से सीखते हुए. इसलिए इसे सिर्फ मेरी ज़िन्दगी से न जोड़े। हो सकता है, सबके साथ ऐसा न भी होता हो. और हो सकता है कुछ लोग इससे सीधा रिलेट करें. अगर इस पोस्ट पर लोगों द्वारा ज्ञान की लम्बी गंगा बह निकले तो कोई हैरानी वाली बात नहीं होगी। क्यूंकि बहुत से लोगों की भावनाएं भी आहत हो सकती हैं और हो सकता है कुछ लोग मुझसे सहमत भी हों. इसलिए डिस्क्लेमर पहले ही दे दिया है. 

सही लिखा था, "घर" वो होता है जहाँ हम अपने हिसाब से अपने स्वाभाविक रूप में रह सकते है. पर उस लेख को शेयर करने के बाद मन में यह ख्याल आया कि एक लड़की का असली "घर" कौन सा होता है. वो, जिसमें एक लड़की पैदा होती है, जहाँ के आँगन में खेल कर वह बड़ी होती है, जहाँ उसके नखरे उठाये जाते हैं, उसे कोई रोक-टोक नहीं होती, वह जैसे चाहे वैसे कपड़े पहनती है, उठती-बैठती है। बर्थ सर्टिफिकेट से लेकर हायर डिग्री की मार्कशीट्स तक में पते के स्थान में वो अपने "घर" का पता भर्ती है. 

मगर एक दिन उसकी शादी हो जाती है. उसे एहसास होता है कि बचपन से जिस जगह को वो अपना "घर" समझती थी वो एक पल में ही उसका 'मायका' बन चुका है. पलभर में उसका पता बदल जाता है. उसकी जगह बदल जाती है. हमेशा से गाहे-बगाहे सबके मुँह से वो सुनती आयी थी कि पति का "घर" ही उसका "घर" है, अपने "घर" जाना तो सारे अरमान पूरे कर लेना। जिस नई जगह को वो अपना "घर" समझ कर गृह प्रवेश करती है, वहां पहुँचते ही उसे पता चलता है कि ये तो उसका 'ससुराल' है. यहाँ वो अपने मन से कपड़े नहीं पहन सकती, साड़ी ही पहननी पड़ेगी क्यूंकि ये तो ससुराल है. वहां से बाहर निकलना है तो सर पे पल्लू रखना अनिवार्य है, वर्ना पड़ोसी क्या बोलेगे, क्यूंकि ये तो ससुराल है, वो अपनी मर्ज़ी से उठ-बैठ नहीं सकती क्यूंकि ससुराल वाले क्या सोचेंगे। यहाँ कुछ भी बोलने के पहले उसे सौ बार सोचना पड़ेगा, कहीं कोई बुरा न मान जाये, क्यूंकि ये तो ससुराल है, यहाँ कोई उसके नखरे नहीं उठाएगा बल्कि सबके नखरे उसे उठाने हैं क्यूंकि ये तो ससुराल है. और इन सब के बाद भी उसे बोला जाता है कि तुम अभी तक इसे अपना "घर" नहीं मान पायी। 

अब सवाल यह उठता है की ये कैसा "घर" है? यहाँ तो उसका स्वाभाविक रूप ही खतम हो गया. यहाँ वो अपने मूल रूप में नहीं रह सकती। अपने पसंद के काम नहीं कर सकती। जैसे चाहे वैसे कपड़े  पहन कर नहीं रह सकती। यहाँ वो अपने मन से नहीं बल्कि दूसरो की पसंद को ध्यान में रखकर जीती है. सुबह उठने से लेकर रात में सोने तक दूसरों के हिसाब से सब करती है. तो फिर ये 'ससुराल' नामक जगह "घर" कैसे हुई? सच के साथ रहने का सबसे आसान तरीका अचानक से इतना मुश्किल कैसे हो गया? आखिर "अपना घर" गया कहाँ?    

सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

शिकायत को दिल से न लगाना



शिकायत, बड़ा ही अजीब शब्द है ये। परायों से हो तो हमें फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन अपनों से हो तो दिल दुखा देती है। बहुत कुछ मिलता है शिकायत के बदले। माँ से हो तो बदले में डांट पड़ जाती है. भाई-बहन के बीच हो तो दीवार बना देती है. दोस्त से शिकायत हो तो यारी में दरार डाल देती है. पुलिस से करो तो जेल करवा देती है. टीचर से करो तो सज़ा दिलवा देती है. बॉस से कर दो तो नौकरी से निकलवा देती है. पति-पत्नी के बीच हो तो तलाक़ भी करवा सकती है. किसी की शादी में हो तो किस्सा बन जाती है. ज़िन्दगी से हो तो मौत से मिलवा देती है. अनकही हो तो अंदर तक झकझोर देती है. सरकार से हो तो तख़्तो-ताज हिला देती है. ईश्वर से हो तो खुद से जुदा कर देती है। 

हर शिकायत का अपना एक अंदाज़ होता है. प्यार भरी हो तो रूठे को मना लेती है। नफ़रत भरी हो तो रिश्तों को उजाड़ देती है। कभी लगता है शिकायत करेंगे तो बात बिगड़ जाएगी। कभी लगता है चुप रहेंगे तो बात दिल में रह जाएगी। शिकायत भी अपनी उम्र लेकर आती है, कम समय के लिए हो तो कम तकलीफ़ पहुँचती है, उम्र लम्बी हो जाये तो नफरत बन जाती है। व्यव्हार में हो तो आदत बन जाती है।

ज़रूरी है शिकायत का दूर हो जाना। बिगड़े रिश्तों का फिर से बन जाना। रूठों को फिर से मना लेना। दोस्त को फिर से यार बना लेना। शिकायत की उम्र छोटी से और छोटी कर देना। ज़रूरी है शिकायत को दिल से न लगाना।

सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

आखिर क्या चलता है मन के मन में

क्या है ये मन, 
कभी चंचल, कभी गंभीर
तो कभी सोच के सागर में
डुबकियां लगता है ये मन
कभी खुद से बिगड़ जाता है
तो कभी खुद को ही
मना लेता है ये मन
कभी चलती हैं ढेरों बातें इसके अंदर
तो कभी शांत समंदर बन जाता है ये मन

क्या है ये मन
कभी उथल पुथल में घिर जाता है
तो कभी बच्चे सा
मासूम हो जाता है ये मन
कभी बदलने को राज़ी नहीं होता
तो कभी पल भर में
बदल जाता है ये मन
आखिर क्या चलता है मन के मन में

कभी सब जान कर भी
अनजान बन जाता है
तो कभी सच का आईना
दिखा देता है ये मन
कभी सवालों का बवंडर बन उमड़ पड़ता है
तो कभी खुद ही
जवाब बन जाता है ये मन
कभी खुद ही घाव लेकर
खुद से ही मरहम लगता है ये मन
आखिर क्या है ये मन


बुधवार, 18 अक्टूबर 2017

बच्चों के मायूस चेहरों से सजी दिवाली

दिवाली, खुशियों का, उजालों का, माँ लक्ष्मी के आगमन का, झिलमिलाता त्यौहार है दिवाली।

लेकिन इस बार दिवाली पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ग्रहण लग गया है. घर के बच्चे मायूस हैं. जहाँ एक ओर भारत भर में बच्चे पटाखे फोड़ रहे होंगे वहीं दिल्ली एनसीआर के बच्चे पूजा करके चुप-चाप दूसरे बच्चो को टीवी पर पटाखे जलाते देखेंगे। और बड़ी मासूमियत से अपने माता-पिता से पूछेंगे की हम पटाखे क्यों नहीं जला सकते ? अब माता- पिता उन्हें समझाए भी तो क्या...

सच है कि पटाखों से प्रदूषण फैलता है... लेकिन क्या ये पूरा सच है ? क्या दिल्ली एनसीआर में सिर्फ पटाखों की वजह से प्रदूषण फैलता है ? क्या गाड़ियों से निकलने वाला धुआं दिल्ली की आबो-हवा में हर रोज़ ज़हर नहीं घोलता ? क्या पास के शहरों के खेतों में लगी आग, दिल्ली में लोगों की साँसे नहीं रोकती ? मगर साल में सिर्फ एक बार आने वाला त्यौहार दिल्ली में प्रदूषण फैला देता है. छोटे-छोटे बच्चों की खुशियां जो एक फूलझड़ी देख कर बढ़ जाती है, वो दिल्ली में ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं. या फिर वो छोटे व्यापारी जो साल भर दिवाली का इंतज़ार करते हैं कि उनकी कुछ कमाई हो जाये और वो भी अपने घर में खुशियां बाँट सकें, वो ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं. क्या केवल दिल्ली शहर इतना नाज़ुक है की पटाखों के धुएं को न झेल पाए और बाकी शहर इतने शक्तिशाली कि उन्हें पटाखों के धुएं से कोई फर्क ही नहीं पड़ता ?

बचपन में जब घर के बड़े सीको, फूलझड़ी, अनार, चकरघिन्नी जैसे पटाखे लेकर आते थे, तो हमारा मन मचल उठता था। हम शाम के इंतज़ार में बेचैन रहते, कि कब पूजा होगी और कब हमें पटाखे जलाने को मिलेगें। मगर इस दिवाली हम अपने घर के बच्चों के मायूस चेहरों को देखेंगे और पूजा के बाद मिल कर कोसेंगे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को.

जब हम बड़े ही इस फैसले को नहीं समझ पा रहे तो आखिर बच्चों को समझाएं भी तो क्या ?????



बुधवार, 11 अक्टूबर 2017

दिल्ली तेरी मेट्रो में, सभी बेहाल हैं


भांति-भांति के चेहरे
भांति-भांति के लोग हैं 
दिल्ली तेरी मेट्रो में
रोज़ चढ़ते लाखों लोग हैं 

कोई जल्दबाज़ी में है, तो कोई परेशान है
सीट पाने की होड़ में
हर कोई खोता अपनी पहचान है
होते हैं वो खुशनसीब
मिल जाती जिनको सीट है
बाकियों के नसीब में
भीड़ के धक्के और तकलीफ़ है

अपनी मंज़िल तक पहुंचने में 
लड़ते सभी एक जंग हैं
लोगो की भीड़ को पार करने में 
हो जाते सभी बदरंग हैं
सुबह जो चेहरे खिले होते हैं
शाम को वो निढाल हैं
दिल्ली तेरी मेट्रो में
सभी के हाल बेहाल हैं

किसी की अपनी ख़ुशी है
तो किसी की अपनी मजबूरी 
किसी को दिल्ली अपना लेता
तो कोई दिल्ली का बन जाता है
क्यूंकि पानी है मंज़िल अगर
तो मेट्रो से ही जाना है
दिल्ली तेरी मेट्रो में
न किसी का कोई ठिकाना है

चढ़ता है यहाँ जोड़े में कोई 
तो बॉस से कोई परेशान है 
मोबाइल में इयरफ़ोन लगाकर 
सभी यहाँ अनजान हैं 
जाना है घर किसी को 
तो किसी को काम पे जाना है 
दिल्ली तेरी मेट्रो से 
लोगों का नाता पुराना है 

पल-पल बढ़ते किराये के हाथों
मजबूर है हर कोई
कोसते रहते हैं सिस्टम को
फिर भी उपाय न सूझे कोई 
सफ़र करना सबकी 
मजबूरी बन जाता है
दिल्ली तेरी मेट्रो में 
किराया कभी भी बढ़ जाता है 

ट्रैफिक का हाल देखकर 
सबको मेट्रो याद आती है 
भूल जाते है बढ़ा किराया 
बस अपनी मंज़िल याद रह जाती है 
चुप चाप चढ़ जाते हैं फिर भी 
सारी महंगाई भूल कर 
दिल्ली तेरी मेट्रो में
अब कुछ तो किराया कम कर 



सोमवार, 9 अक्टूबर 2017

तेरे प्यार में हम अपना शहर छोड़ आए


तेरे प्यार में हम अपना शहर छोड़ आए
बचपन से भरा वो आँगन छोड़ आए
होती थी सुबह जहाँ आंखें मलते-मलते
माँ के आँचल में नख़रे करते-करते
ममता से भरा वो आँचल छोड़ आए
तेरे प्यार में अपना शहर छोड़ आए

जहाँ हर गली से थी पहचान मेरी
गाड़ी की रफ़्तार से होती थी बातें मेरी
कुछ दूर पर था सहेलियों का ठिकाना
हर मौके पर हो जाता था मिलना-मिलाना
सहेलियों की वो खट्टी-मीठी बातें छोड़ आए
तेरे प्यार में हम अपना शहर छोड़ आए

जहाँ होती थी शाम कभी गंगा किनारे
डूबते सूरज को निहारते थे घंटों किनारे
मिलते थे जहाँ गोलगप्पे मटर वाले 
परिवार संग लगते थे चाट के चटखारे 
हम गोलगप्पे की वो मटर छोड़ आये 
तेरे प्यार में हम अपना शहर छोड़ आए




सोमवार, 25 सितंबर 2017

फिर से...


फिर एक सुबह जीना चाहती हूँ 
तेरे प्यार में डूबकर,
फिर एक दिन जीना चाहती हूँ 
तुझसे मिलके छुपकर, 
फिर एक शाम जीना चाहती हूँ  
छत के सिरहाने बैठकर,
फिर एक रात जीना चाहती हूँ 
बातों में काटकर,
फिर एक मुलाक़ात जीना चाहती हूँ 
अजनबी बनकर 

शनिवार, 23 सितंबर 2017

थिरकते ख़्वाब


ख़्वाबों की एक दुनिया है
इस दुनिया में कई ख़्वाब हैं
करते हैं हमसे बातें 
ये अरमानों की वो किताब हैं,
ख़्वाबों को कोई तस्वीरों मैं कैसे क़ैद करे 
ये तो उड़ते हैं मन के आँगन में 
लब्ज़ बना कर ख्वाबों को कोई कैसे बयां करे,
हर ख़्वाब की ऊंची है बोली
चुकानी पड़ती है जिनकी कीमत ऊंची,
अजब हैं कायदे दुनिया के 
कोशिश करते हैं यहां सब 
ख़्वाबों को मिट्टी में मिलाने 
फ़िर भी चलते रहते हैं हम
ख़ुद के कदम दुनिया से मिलाने,
जो ख़्वाब देखते हैं बंद आंखों से
उन्हें याद रखने की कोशिश करते नहीं 
पर जो ख़्वाब देखते हैं खुली आंखों से
उन्हें खुद से जुदा होने देते नहीं,
मुठ्ठी में बंद ख़्वाबों को कर दिया है आज़ाद
फर्क नहीं पड़ता हमें अब दिन हो या रात 
हमें तो बस पूरे करने हैं अपने "थिरकते ख़्वाब"

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

ज़िन्दगी




ज़िन्दगी के सफ़र पर, नई राहों से मुलाकात हुई
रुख़ जो किया उनकी तरफ़ पहचान उनसे बनती गई 
एक सिलसिला सा बनता गया यादों का 
हर याद मुझमें अपने निशान छोड़ती गई

"ज़िन्दगी", कुछ भी लिखने के लिए यह हमेशा ही मेरी फेवरेट रही है. क्यूंकि इसमें कई रंग समाये हैं. इस एक शब्द में कई अक्षर उभर कर सामने आते हैं. इसमें कभी उतार-चढ़ाव हैं तो कभी ठहराव है. कुछ मीठी यादें हैं तो कुछ कभी न भूलने वाले पल हैं. कुछ गलतियां हैं तो कुछ सबक सीखा देने वाले लम्हें भी हैं. कभी ख़ुशी तो कभी ग़म है. कभी घना अँधेरा है तो कभी उजली रौशनी है. इसमें अनमोल रिश्ते हैं तो दगा देने वाले लोग भी हैं. यह ठोकर देती है तो दुलार कर उठती भी है. 
इसकी सबसे ख़ास बात यह होती है कि यह कभी भी एक सामान नहीं होती। सबकी अलग-अलग होती है लेकिन किसी को भी अपनी नहीं बल्कि दूसरों की अच्छी लगती है. "ज़िन्दगी" होती ही कुछ ऐसी है.  

बुधवार, 1 मार्च 2017

कैशलेस इकॉनमी

8 नवम्बर 2016, भारतीय इतिहास में वह तारीख़ जिसने भारत देश की अर्थव्यवस्था को ही पलट कर रख दिया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा पांच सौ व हज़ार के नोटों पर प्रतिबंध लगाने की अचानक हुई घोषणा ने पूरे देश को हिला कर रख दिया. यह काले धन को ख़तम करने के लिए धन पर प्रधानमंत्री द्वारा की गयी एक सीधी चोट थी, जिसकी चपेट में हर खास व आम आदमी आ गया.

नोटबंदी के बाद से ही कैशलेस यानि बिना नकदी इस्तेमाल किये लेनदेन व खरीद फ़रोख्त की सलाह सरकार द्वारा दी जाने लगी. इसके लिए केंद्र सरकार देश में कैशलेस इकॉनमी को बढ़ावा देने के लिए कई योजनायें चला रही है. लेकिन इसके बावजूद क्या भारत सचमुच कैशलेस इकॉनमी  के लिए तैयार है?

क्या है कैशलेस लेनदेन- कैशलेस इकॉनमी का मतलब होता है एक ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ पर कैश का प्रयोग ना के बराबर होने के साथ ही सभी प्रकार के लेनदेन सिर्फ व सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के ज़रिये होते हो. क्यूंकि भारत देश अभी तक भारी मात्रा में कैश का यूज़ करता आया है इसीलिए कैशलेस लेनदेन में एडजस्ट होना भारत के लिए एक बड़ी बात है. इसके लिए इन सभी माध्यमों की जानकारी होना ज़रूरी है.

Credit Card, Debit Card, IMPS, NEFT, RTGS, cheque व पेमेंट एप्स द्वारा किये जाने वाले सभी ट्रांजेक्शन कैशलेस लेनदेन का हिस्सा है. इन सभी माध्यमों के ज़रिये बिना बैंक जाये घर बैठे ही अपने खाते से किसी के भी खाते में पैसे ले या भेजे जा सकते है. चाहे तो  रोज़मर्रा के जीवन में काम आने वाली चीज़ों के लिए भी इनका यूज़ किया जा सकता है.

अपने फ़ोन में Paytm, mobikwik, freecharge, phonepe UPI जैसी एप्लीकेशन डाउनलोड करके शॉपिंग, इलेक्ट्रिसिटी, पानी, डी2एच, बीमा किश्त आदि का पेमेंट घर बैठे ही आसानी से कर सकते है. समय के बदलते रुख को देखते हुए अब शहर के साथ कस्बों व गावों की फेमस दुकानों पर भी Paytm स्वाइप मशीन द्वारा लेनदेन किया जाने लगा है. इसके लिए अब जेब में हर समय कैश रखकर चलने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी.

कैशलेस के फायदे-

पॉकेट फ्रेंडली- सरकार और Paytm, Freecharge, phonepe, व UPI जैसी कई एप्लीकेशंस समय-समय पर कस्टमर्स को कैशलेस भुगतान पर discount व cashback जैसे ऑफर्स देती रहती है. साथ ही snapdeal, flipkart, amazon जैसी कई शॉपिंग वेबसाइट्स भी है जो ऑनलाइन पेमेंट करने पर discount देती है. इससे COD पर होने वाला एक्स्ट्रा खर्च भी बच जाता है. इसके अलावा ऑनलाइन पेमेंट करने पर सभी पेमेंट का रिकॉर्ड बैंक में सेव हो जाता है. जिससे यह याद रखने की ज़रूरत नहीं की कब कहाँ और कितना खर्च किया था.

समय की बचत- कैश निकलने के लिए बैंक के चक्कर लगाने हो, एटीएम की लाइन में खड़े रहना हो या बिजली का बिल जमा करने जैसे कई काम है जिसमे हम अपनी ज़िन्दगी के अनमोल पल गवांते आये है.  कैशलेस ट्रांजेक्शन करने से हमें कैश की ज़रूरत नहीं रहती जिससे समय की काफी बचत होती है.

सिक्यूरिटी- घर पर तिज़ोरी में रखा कैश हो या फिर जेब में कैश लेकर सफर करना हो, हर समय मन में सुरक्षा को लेकर डर बना रहता है. साथ ही चोरी व छीना झपटी का ख़तरा भी सर पर मंडराता रहता है.  इलेक्ट्रॉनिक ट्रांजेक्शन ऐसे किसी भी तरह के खतरे से हमे दूर रखते है. और अगर कार्ड खो भी जाता है तो तुरंत बैंक में फोन करके कार्ड ब्लॉक भी करवा सकते है.

टैक्स कलेक्शन- भारी मात्रा में यूज़ किया जाने वाला कैश कालेधन व भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है. जिससे सरकार को टैक्स कलेक्ट करने में समस्या आती है. देश में इनकम टैक्स देने का बोझ नौकरी पेशा लोगों पर ज्यादा पड़ता है जबकि बिजनेस क्लास अपनी आय छुपाने में काफी हद तक सफल हो जाता है. कैशलेस ट्रांजेक्शन होने पर आय व्यय की सभी जानकारी ऑनलाइन हो जाती है. जिससे सरकार द्वारा टैक्स कलेक्शन में बढ़ोत्तरी होती है.

भ्रष्टाचार- भारत जैसी बड़ी आबादी व विशाल देश में भ्रष्टाचार पर लगाम कसना आसान नहीं है. कैशलेस इकॉनमी की वजह से भ्रष्टाचार में कमी आ सकती है. क्यूंकि भारत ज्यादातर भ्रष्टाचार की गतिविधियाँ कैश में ही होती है. सरकारी महकमे में घूस देनी हो या स्कूल में एडमिशन के लिए डोनेशन देना हो, ऐसे कई काम है जो सिर्फ कैश में ही अंजाम दिए जाते है. आंकड़े बताते है कि जिन देशों ने कैशलेस इकॉनमी को अपनाया है वहां भ्रष्टाचार बेहद कम है.

कैशलेस के नुकसान-

साइबर फ्रॉड- देश में साइबर सिक्यूरिटी के पुख्ता इंतजाम ना होने से लोगों के अकाउंट से पैसे चोरी होने का खतरा बना रहेगा. हालाँकि भारत सरकार दूसरे देशों के साथ मिलकर इस पर काम कर रही है.

सेवा शुल्क- कई भुगतान जैसे कि रेलवे, मोबाइल वॉलेट पर भी कुछ फ़ीसदी तक ट्रांजेक्शन चार्ज वसूला जाता है. इसके अलावा कई क्षेत्र जहाँ पर व्यापारियों का मार्जन कम होने के कारण वह बैंक द्वारा लगाये गए शुल्क का वहन नहीं कर पाते हैं व हड़ताल जैसे कदम उठाने की धमकी देते है जिसका भुगतान आम जनता को होता है. 

अशिक्षित आबादी का शोषण- भारत देश में एक बड़ा तबका अभी भी शिक्षा से दूर है ऐसे में अशिक्षित लोगों द्वारा कैशलेस सुविधा का फायदा उठाना बहुत मुश्किल है. साथ ही देश में मौजूद असामाजिक तत्वों द्वारा इन लोगों का शोषण करना आसान होगा.  

कैशलेस लेनदेन को भारत में बढ़ावा देने पर आने वाले इन सभी फायदे व नुकसान के बाद भी देश की अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए कैशलेस इकॉनमी सरकार द्वारा उठाया जाने वाला एक साहसी कदम है. जिसके रास्ते में सरकार के आगे अभी कई चुनौतियाँ है. मसलन, नोटबंदी पर दूसरी राजनैतिक पार्टियों द्वारा लगातार किया जाने वाला विरोध, छोटे व्यापारियों द्वारा अभी भी कैश का यूज़ किया जाना, लोगों के अन्दर टैक्स बचने की  आदत, अशिक्षित आबादी तक कैशलेस सुविधा के माध्यमों की कमी, गावों तक इन्टरनेट व स्मार्ट फ़ोन का ना पहुंच पाना, सरकार द्वारा धन-जन योजना चलाये जाने के बाद भी गरीब तबके का बैंक में अकाउंट ना होना, साथ ही कार्ड यूज़र्स के अन्दर बैठा यह डर कि इसके यूज़ से उन्हें शुल्क के रूप में अधिक धन व्यय करना पड़ेगा जैसी कई चुनौतियाँ सामने है जिनका हल निकलने में सरकार को अधिक समय लग सकता है.