बुधवार, 27 जून 2018

लघु कथा- तुम्हें ज़रूरत नहीं किसी निशानी की


मानव (झिझकते हुए): सुनो, क्या मैं ये अंगूठी उतार दूँ?

अपेक्षा: लेकिन ये तो हमारी सगाई की अंगूठी है, इसे क्यों उतार रहे?

मानव: देखो न, मेरी उंगली में अंगूठी का निशान बन गया है। मैं कुछ दिन के लिए इसे नहीं पहन सकता और वैसे भी मुझे आदत नहीं है ये सब पहनने की, इसीलिए उतार रहा हूँ, तुम संभाल कर रख दो।

अपेक्षा (थोड़ा मुस्कुराते हुए): ह्म्म्म... ये बिछिया देख रहे हो मेरे पैरों में, जब भी जूती या सैंडल पहनने की कोशिश करती हूं... ये गढ़ती है उंगली में, बहुत दर्द होता है। इस वजह से मैंने अपनी पसंद की फुटवियर पहननी ही बंद कर दी। अब सिर्फ वही चप्पल खरीदती हूं जिसमें उंगलियां आगे से खुली रहती हैं...

...अच्छा ये छोड़ो, मेरा मंगलसूत्र देखो, पता है गर्मियों में कई बार पसीना आने से इसकी वजह से मुझे दाने हो जाते हैं। फिर भी मैं इसे उतारती नहीं...

...और ये कांच की चूड़ियां, ये तो सबसे ज्यादा नटखट हैं, काम करते-करते खुद तो टूटती ही हैं, साथ में मेरे हाथों में चोट भी दे जाती है...

...उफ्फ ये कान की बाली, सोते समय बहुत तंग करती है, कभी-कभी तो कान का छेद पका भी देती है।
मुझे भी आदत नहीं थी ये सब रोज़ पहन कर रहने की, फिर भी पहनती हूं।
और गलती से कभी इनमें से कुछ उतार दूं या पहनना भूल जाऊं तो तुम्हारी मां यानी मेरी सासू मां टोक देती हैं और साथ में सुहाग की निशानियों पर दस बातें भी सुना देती हैं...

...पर तुम्हें कोई नहीं टोकेगा और ना बातें सुनाएगा। क्योंकि तुम्हें किसी निशानी की ज़रूरत नहीं....लाओ रिंग मुझे दो, मैं संभाल कर रख देती हूं।