बुधवार, 6 अगस्त 2014

ऐ हवा तू यूँ छेड़ न हमें...




 
हवाओं ने दोस्ती कर ली आज हमसे...

फिज़ाओं ने संगती कर ली आज हमसे...

कुछ कह रही है मानो छू के हमें...

कुछ गुनगुनाने की गुज़ारिश कर रही है आज हमसे...

ऐ हवा तू यूँ छेड़ न हमें...

तेरे छूने से याद किसी की आती है हमें...

हम तो यूँ ही छत पर मिलने आये थे तुझसे...

तेरी अठखेलियों में शामिल होने,

कुछ अपनी सुनाने, कुछ तेरी सुनने...

पर तेरी इन नादान शैतानियों ने...

यादों के सफ़र को ताज़ा कर दिया...

निगाहों में बंद झलक को फिर से छलका दिया...

बस अब इतनी सी ख्वाहिश और है...

बह चलूँ साथ तेरे मैं भी...

बाहें फ़ैला कर उड़ चलूँ साथ तेरे मैं भी...

तेरी अठखेलियों में शामिल हो जाऊं मैं भी...

रविवार, 20 अप्रैल 2014

चंचल मन अति रैंडम...

चंचल मन अति रैंडम... यूँ ही कॉलेज का समय याद आ गया... उस समय मैं बड़ी पंगेबाज हुआ करती थी...  गर्ल्स स्कूल में पढ़ने के बाद पहली बार कोएड कॉलेज में आना काफ़ी नया अनुभव था मेरे लिए... चूँकि कॉलेज घर के बगल में था, सो पापा ने साफ़ बोल दिया था... कभी कोई लड़का परेशान करे तो रो के घर मत आना... भले ही उससे भिड़ आना, ऐसा उन्होंने शायद इसलिए बोला जिससे मेरे अन्दर कोएड में पढ़ने को लेकर किसी तरह का डर ना रहे...
मेरे पंगों की शुरुआत तब हुई जब एडमिशन फॉर्म को लेकर एक प्रोफेसर लगातार हमे कॉलेज के चक्कर कटवा रहे थे... रोज़-रोज़ कल का बहाना बनाकर हमें वापस भेज देते... मुझे जाने क्या सूझी और उनको बोल दिया, आप एक तय तारीख़ क्यों नहीं बता देते हम सीधे तभी आ जायेगें, बस फिर क्या था... वो भड़क गए और बोल दिया तुम्हें तो अब किसी हाल में एडमिशन नहीं देगे... तभी उनके पास बैठे दूसरे प्रोफेसर ने मुझे पहचान लिया और उन्हें बताया अवधेश की बिटिया है... इतना सुनते ही भड़के हुए चेहरे पर मुस्कान आ गयी... और बोले अब समझ आया इतनी दबंग कैसे है, अब तो इसे एडमिशन देना ही पड़ेगा.... दरअसल पापा अपने ज़माने में कॉलेज के नेता हुआ करते थे... और सभी प्रोफेसर्स से उनकी दोस्ती रहा करती थी... और अब उन्हीं प्रोफेसर्स से पढ़ने की बारी मेरी थी...
खैर, इस पंगे से तो मैं ख़ुशी- ख़ुशी बाहर आ गयी... पर अभी तो ये सिलसिला शुरू भर हुआ था... मेरा एडमिशन भी आराम से हो गया... कॉलेज लाइफ शुरू हो चुकी थी, जिसके साथ ही कुछ लड़कों से दोस्ती भी जल्दी ही हो गयी...एक अच्छा-खासा ग्रुप बन गया था हमारा... क्लास में तो याद ही नहीं कितनी बार गए हो... कॉलेज के पार्किंग एरिया में सीढ़ियों पर ही हमने अड्डा बना रखा था... जहाँ  रोज़ सिर्फ हंसी-मजाक और गप्पे लड़ाए जाते थे...
तभी इलेक्शन का समय आया... मेरा घर पास में होने के कारण लड़कों का एक झुंड मेरे दरवाज़े आ खड़ा हुआ... और हाथ जोड़कर वोट देने की अपील करने लगा... वो लड़के जो कॉलेज में घूर-घूर के देखा करते थे उनके लिए अचानक से ही मैं बहन बन गयी... हो भी क्यूँ न मामला वोट लेने का जो था... अपने दरवाज़े इनके सारे लड़कों को देखकर मुझे गुस्सा आ गया... और उन्हें अच्छी तरीके से हड़क दिया... साथ ही सख्त हिदायत दे दी की मेरे घर के आगे उनका एक भी पोस्टर नहीं दिखना चाहिए... मैंने बोल तो दिया पर उसका अंजाम नहीं सोचा था...
उसी शाम मेरे दोस्तों का फ़ोन आया कि तुमने क्या पंगा कर दिया है... कुछ दिन तक कॉलेज मत आना... दरअसल कॉलेज में मेरे नाम का फ़तवा जारी  हो गया था... कि ये लड़की कॉलेज में नज़र भी आये तो बच के नहीं जानी चाहिए... तकरीबन इलेक्शन होने तक तो मैं घर पर ही रही... उसी बीच मेरी एक पढ़ाकू सहेली को कॉलेज में काम निकल आया और मुझे साथ लेकर वो कॉलेज आ गयी... ना जाने कैसे मेरे दोस्तों को ये खबर मिल गयी और कॉलेज आकर मुझे घर जाने को बोल दिया... क्यूंकि उन लड़कों को ये पता चल चुका था कि मैं कॉलेज में हूँ... जैसे तैसे मैं घर तो आ गयी पर कुछ दिन तक मेरा कॉलेज जाना बंद हो गया...
मेरे साथ की लड़कियों को अक्सर लगता था की मैं ये सब जान-बूझकर सबकी नज़रों में आने के लिए करती हूँ... पर ऐसा कुछ भी नहीं था... मैं पंगे नहीं लेती थी, पंगे खुद चल कर मेरे पास आ जाया करते थे... 5 साल में सिर्फ 1 साल के लिए कॉलेज गयी और इतने पंगे हो गए... ना जाने पूरे 5 साल जाती तो क्या होता... 
बहुत अच्छा समय हुआ करता था वो... स्कूल और कॉलेज के दिन हर किसी के लिए ख़ास होते है... मेरे लिए भी है... आज वक़्त ने बहुत कुछ बदल दिया है... सब अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त है...
लगता है टाइम मशीन के ज़रिये फिर उन्हीं दिनों में पहुँच जाये... फिर से टीन-एज हो जाये...

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

देश चलाने में और मनोरंजन करने में फर्क होता है...



मेरे पापा को ह्रितिक रोशन कभी पसंद नहीं आते... टीवी पर उनकी फिल्म या इंटरव्यू आता  तो तुरंत मुझे हटाने को बोल देते... उसी जगह अभिषेक बच्चन की हर फिल्म बड़े चाव से देखते... वजह साफ़ थी... अभिषेक इलाहाबादी कायस्थ व महानायक अमिताभ बच्चन के सुपुत्र है... पर उसके उलट मुझे हृतिक उतने ही पसंद है... उनकी फ्लॉप फिल्मों को भी मैं बार बार देख सकती हूँ... वजह फिल्म कैसी भी हो उसमे हृतिक तो है...

मुझे याद है... साल 2000 में जब कहो न प्यार है पर्दे पर उतरी थी...उस समय मैं सातवीं क्लास में पढ़ रही थी... टीवी पर हृतिक का पहला इंटरव्यू देखते ही मैंने तय कर लिया था की पत्रकार ही बनना है... क्यूंकि यही एक रास्ता था जिसके ज़रिये मैं भीड़ में नहीं बल्कि अलग से साथ बैठकर उनसे बातें कर सकती थी... उनकी पसंद नापसंद पूछ सकती थी... उनके बारे में हर जानकारी लेना जैसे मेरी आदत में शुमार हो चुका था... उनकी आँखे जैसे हर बार कुछ कह जाती है... उनको लेकर मेरे मन मैं कभी ये नहीं आया की काश मेरी उनसे शादी हो जाये... बल्कि हमेशा यही आता की काश हृतिक मुझे अपनी बहन बना ले... क्यूंकि  उनकी बहन के साथ उनके प्यार के बारे में मैंने बहुत कुछ पढ़ रखा था...

खैर, ऐसे ही उनके बारे में पढ़ते हुए मुझे पता लगा की हृतिक भी वास्तव में कायस्थ ही है... उनके दादा जी का नाम रोशन भटनागर था... जिसे बाद में उनके पिता ने अपना सरनेम बना लिया और राकेश भटनागर से राकेश रोशन बन गए... ये बात जैसे ही मैंने पापा को बताई वैसे ही उनके ख़यालात हृतिक के बारे में बदल गए... अब उन्हें ह्रितिक की फ़िल्में पसंद आने लगी... और अब तो वो मुझे भी टीवी पर उनकी फिल्म या इंटरव्यू देखने से नहीं रोकते... यहाँ तक की हृतिक का रिश्ता टूटने से जितना दुःख मुझे हुआ... उतना ही खेद पापा ने भी जताया...

आजकल इलेक्शन को लेकर भी लोगो की सोच कुछ इसी तरह से ही सामने आती है... जात या धर्म के आधार पर वोट देने के लिए जब पापा से मैंने इस बात पर चर्चा की, तो उनका साफ़ कहना था... बेटा देश चलाने में और मनोरंजन करने में फर्क होता है... अभिनेता तो हम अपने अनुसार पसंद कर सकते है... क्यूंकि उनका काम मात्र हमारा मनोरंजन करना होता है... लेकिन नेताओं को जात या धर्म के आधार पर वोट देना गलत है...

पापा की बात मेरी समझ में आ गयी... लेकिन एक अफ़सोस ज़रूर है की मैंने पत्रकार बनने की राह तो पकड़ ली... पर अभी तक हृतिक का इंटरव्यू लेने का सपना पूरा नहीं हुआ... पता नहीं और कब तक इस सपने का पूरा होने का इंतजार करना पड़ेगा...   

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

अपनी ज़िन्दगी की 'क्वीन'



मिठाई की दुकान में खड़ी साधारण सी रानी, विजय को पसंद आ जाती है.... वह उसका पीछा करता है... मिलने के बहाने ढूँढता है... और मौका मिलता ही उससे अपने प्यार का इज़हार कर देता है... उनकी शादी भी तय हो जाती है... इसी बीच नौकरी करने विजय लन्दन चला जाता है... और जब लौट के आता है तो वही रानी जिसे खुद उसने पीछे पड़कर प्रपोज़ किया था... जिसके दिल में उसने अपने लिए प्यार जगाया था, उसे आउट डेटिड बहनजी टाइप लगने लगती है... क्यूंकि वह अब उसे सूट नहीं करती... जिसके चलते शादी के एक दिन पहले विजय उसे ठुकरा देता है... टूटा हुआ दिल लेकर रानी, रोने के बजाये अकेले ही हनीमून पर निकल पड़ती है... जहाँ उसकी मुलाकात होती है अपने ही अन्दर कहीं छुपी क्वीन से...

अब सवाल ये उठता है की क्वीन को रिलीज़ हुए तो महीना बीत रहा फिर आज मैं उसकी कहानी क्यों लिख रही हूँ???? क्यूंकि आज ही मैंने ये फिल्म देखी है... यह हर उस लड़की की कहानी है जो दिल टूटने पर या प्रेमी से धोखा मिलने पर ज़िन्दगी भर रोती नहीं है... बल्कि अपने अन्दर की क्वीन को बाहर लाकर उसे ये दिखा देती है, की तुम्हारे बिना भी मेरी ज़िन्दगी उतनी की रंगीन है जितना तुम्हारे आने से पहले थी... मैं तो तुम्हें शुक्रिया कहना चाहती हूँ की तुम मेरी ज़िन्दगी से चले गए... क्यूंकि तभी मुझे यह एहसास हुआ की मेरी ज़िन्दगी सिर्फ मेरी है... जो किसी के धोखा देने से ख़त्म नहीं हो जाती बल्कि मैं तो अब पहले से कहीं ज़्यादा खुश हूँ... एक आज़ाद पंछी की तरह, जो बाहें फैलाये आसमान में अपनी उड़ान भरता है... और अपनी दिशा खुद तय करता है...

फिल्म देखने को लेकर मेरी पसंद हमेशा से ही जुदा रही है... यही वजह है की जल्दी मेरे साथ कोई फिल्म देखने को राज़ी नहीं होता... क्वीन भी मैं शुरुआत से ही देखना चाहती थी लेकिन कोई भी ऐसा नहीं मिला जो मेरे साथ यह फिल्म देखने चले... किसी को कंगना नहीं पसंद तो कोई महिला प्रधान फिल्म नहीं देखना चाहता... तो किसी को उसमे सलमान, शाहरुख़ या आमिर जैसा कोई बड़ा कलाकार नहीं दिख रहा था... पंचकुला के सिनेमाघर में एक ने औरत 3 टिकट खरीदकर अकेले ही इस फिल्म को देखा था... क्रिटिक्स की प्रतिक्रियाएं भी अच्छी थी तो कैसे मैं क्वीन को न देखती... आखिर में बिना बताये टिकट बुक करवा कर मैं माँ को अपने साथ ले गयी...

मेरे साथ यह पहली बार नहीं हुआ... ऐसा ही कुछ फिल्म तुम बिन, जब वे मेट, गुज़ारिश, रॉकस्टार और बर्फी के समय भी हुआ था... कोई भी मेरे साथ इन्हें देखने को राज़ी नहीं हुआ... और अंत में टीवी या लैपटॉप पर ही मुझे ये फ़िल्में देखनी पड़ी... यहाँ तक की रान्झाना भी मैं धनुष या सोनम की वजह से नहीं बल्कि फिल्मों को लेकर अपनी इस अलग पसंद की वजह से देखने गयी... पर्दे पर जितना ज़रूरी अच्छे हीरो या हिरोइन होते है उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी उनकी कहानी... उनके किरदार और उन्हें दर्शाने का तरीका होता है... जिस फिल्म को देखने के लिए दिमाग और भावनाएं घर छोड़ कर जानी पड़े, वह फिल्म ही क्या... हालाँकि फिल्मों को लेकर हर किसी का अपना अलग नज़रिया और पसंद होती है... लेकिन खुद की और समाज की सोच बदलने के लिए क्वीन जैसी फिल्मों का बनते रहना भी ज़रूरी है... और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है इन् फिल्मों को देखना...

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

नज़रों का सुकून, कसौली

कभी कभी कुछ नज़ारे हमें निशब्द कर देते है... हिमांचल प्रदेश में कसौली हिल्स इसकी जीती जागती मिसाल है...कसौली में कुदरत के द्वारा रची बसी खूबसूरती को देखकर मैं भी स्तब्ध थी...मानो शब्दों ने नाता ही तोड़ लिया हो मुझसे...
घुमाव दार रास्ते... सामने बादलों का झुंड... उसपर बारिश की बूँदें... एक अलग ही एहसास जगा रहीं थी... करीब आते पहाड़ों पर बादलों से घिरी चादर देखते ही बनती थी... और हां पहली बार चर्च जाने का मौका भी मुझे कसौली में ही मिला...हालाँकि तेज़ बारिश के चलते मैं सनसेट पॉइंट नहीं जा सकी...उसका अफ़सोस ज़रूर रहेगा...
आँखों में बसे उन बेमिसाल बे-इन्तेहां खूबसूरत नज़ारों के लिए शब्द होते तो ज़रूर उनकी माला पिरोकर उन्हें ही समर्पित कर देती... पर कहते है न एक तस्वीर हज़ार शब्दों के बराबर होती है...तो बस...पहाड़, बादलों और बारिश के साथ तस्वीरें लेने में ही मशरूफ़ हो गयी...





रविवार, 2 मार्च 2014

लड़की हो दायरे में रहो, वरना समाज क्या कहेगा????



इस कहानी पर लिखते लिखते मैं कई बार रुकी....हर बार सोचा की किसी समाज या समुदाय पर एकदम से लिख देना सही नहीं है...कई लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँच सकती है...लेकिन क्या इस बारे मैं सोच कर मैं उस लड़की को दरकिनार कर दूं जो ना चाहते हुए भी सीधे तौर पर इस समस्या से जुड़ी हुई है...
दोस्ती मैं मैंने कभी जात-पात...पुर्लिंग-स्त्रीलिंग को आड़े नहीं आने दिया... यही वजह है की कायस्थ के साथ-साथ पंडित, ठाकुर, जैन, सिन्धी, मराठी, गुजराती से लेकर मुस्लिम भी मेरे अच्छे दोस्त है...हर किसी से बहुत कुछ सीखने को मिलता है...उनकी संस्कृति, सभ्यता रहन-सहन सब कुछ... पर इसके साथ ही इनसे जुड़े कुछ ऐसी बातें भी सामने आते है जो एक हद के बाद समझ के परे होने लगती है...हो सकता है ये हर घर की या हर लड़की की कहानी न हो...या हो भी सकती है पर ये कितनी और कहाँ तक जायज़ है?????
शहर के एक संपन्न परिवार से ताल्लुख रखने वाली...अंग्रेजी माध्यम से पढ़ी...ख़ुद कार ड्राइव करने वाली...बड़े से घर में रहते हुए महंगे से महंगे कपड़े और सामान इस्तेमाल करने वाली मेरी दोस्त के पास देखा जाये तो वो सब कुछ है जो एक अमीर घर की लड़की के पास होना चाहिए...दूर से देखने पर यही लगेगा कि उसे किसी बात की कमी नहीं...लेकिन उसे करीब से जानने के बाद, न जाने क्यों मैं खुद को उससे ज्यादा खुशनसीब मानने लगी... वह अपने परिवार में किसी से खुल कर मन की बात नहीं कर सकती.... क्यूंकि दायरे में रहने की सलाह मिल जाती है... स्नातक करते ही उसके ऊपर शादी का दबाव बनाया जाने लगा... जैसे तैसे घर में लड़-झगड़ कर फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने के बाद भी वो नौकरी कर खुद की पहचान नहीं बना सकती... क्यूंकि जिस समाज में वो रहती है वहां लड़कियों का नौकरी करना सीधे पिता को नीचा दिखाने के बराबर है...यानि पिता के कमाने में ही कहीं चूक रही होगी, तभी लड़की को बाहर निकल कर नौकरी करने की ज़रुरत आन पड़ी...और तो और उसकी शादी में भी सिर्फ इसी वजह से अड़चने आयेगी...किस तरह का समाज है ये जो एक लड़की को आत्मनिर्भर नहीं होने देना चाहता...????
उसके परिवार में लड़कों से दोस्ती करना तो दूर, बात करना भी मना है... उसे एक फ़िल्म देखने के लिए भी घर में झगड़ा करना पड़ता है...क्यूंकि परिवार को डर है, उनकी बेटी के बगल वाली सीट में कोई लड़का ना बैठा हो... कहीं किसी ने देख लिया तो शादी कैसे होगी.... प्यार करना तो जैसे उसके घर में क़त्ल करने के बराबर है... समाज में खबर फ़ैल गई, तो कौन शादी करेगा... फैशन डिजाइनिंग का कोर्स भी इसलिए करने दिया कि शादी के बायो-डेटा में एक डिग्री ही नज़र आ जाएगी... प्यार से बोल कर, ज़िद करके, बग़ावत करके, हर तरीके से घर वालों को समझा कर देख लिया...पर परिणाम वहीँ का वहीँ...हर बात उसकी शादी से शुरू होकर शादी पर ख़तम हो जाती है... और उसे इस बात के लिए डराया जाता है की समाज वाले क्या कहेंगे.....वो जैसे सोने के महल में कैद एक चिड़िया बन कर रह गयी है...जिसके माता पिता इस पिंजरे से निकाल कर शादी करके दूसरे पिंजरे में डालने की तैयारी कर रहे...
मैंने यहाँ उसके समाज का जिक्र नहीं किया... क्यूंकि समाज में हर किसी की कहानी एक नहीं होती... साथ ही इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हर जात या धर्म में समाज के ऐसे ठेकेदार तो मिल ही जायेंगे... कई परिवार भी ऐसे मिल जायेंगे... इसलिए सीधे तौर पर एक समाज, जात या धर्म पर ऊँगली उठा देना जायज़ नहीं है...