बुधवार, 9 अप्रैल 2014

अपनी ज़िन्दगी की 'क्वीन'



मिठाई की दुकान में खड़ी साधारण सी रानी, विजय को पसंद आ जाती है.... वह उसका पीछा करता है... मिलने के बहाने ढूँढता है... और मौका मिलता ही उससे अपने प्यार का इज़हार कर देता है... उनकी शादी भी तय हो जाती है... इसी बीच नौकरी करने विजय लन्दन चला जाता है... और जब लौट के आता है तो वही रानी जिसे खुद उसने पीछे पड़कर प्रपोज़ किया था... जिसके दिल में उसने अपने लिए प्यार जगाया था, उसे आउट डेटिड बहनजी टाइप लगने लगती है... क्यूंकि वह अब उसे सूट नहीं करती... जिसके चलते शादी के एक दिन पहले विजय उसे ठुकरा देता है... टूटा हुआ दिल लेकर रानी, रोने के बजाये अकेले ही हनीमून पर निकल पड़ती है... जहाँ उसकी मुलाकात होती है अपने ही अन्दर कहीं छुपी क्वीन से...

अब सवाल ये उठता है की क्वीन को रिलीज़ हुए तो महीना बीत रहा फिर आज मैं उसकी कहानी क्यों लिख रही हूँ???? क्यूंकि आज ही मैंने ये फिल्म देखी है... यह हर उस लड़की की कहानी है जो दिल टूटने पर या प्रेमी से धोखा मिलने पर ज़िन्दगी भर रोती नहीं है... बल्कि अपने अन्दर की क्वीन को बाहर लाकर उसे ये दिखा देती है, की तुम्हारे बिना भी मेरी ज़िन्दगी उतनी की रंगीन है जितना तुम्हारे आने से पहले थी... मैं तो तुम्हें शुक्रिया कहना चाहती हूँ की तुम मेरी ज़िन्दगी से चले गए... क्यूंकि तभी मुझे यह एहसास हुआ की मेरी ज़िन्दगी सिर्फ मेरी है... जो किसी के धोखा देने से ख़त्म नहीं हो जाती बल्कि मैं तो अब पहले से कहीं ज़्यादा खुश हूँ... एक आज़ाद पंछी की तरह, जो बाहें फैलाये आसमान में अपनी उड़ान भरता है... और अपनी दिशा खुद तय करता है...

फिल्म देखने को लेकर मेरी पसंद हमेशा से ही जुदा रही है... यही वजह है की जल्दी मेरे साथ कोई फिल्म देखने को राज़ी नहीं होता... क्वीन भी मैं शुरुआत से ही देखना चाहती थी लेकिन कोई भी ऐसा नहीं मिला जो मेरे साथ यह फिल्म देखने चले... किसी को कंगना नहीं पसंद तो कोई महिला प्रधान फिल्म नहीं देखना चाहता... तो किसी को उसमे सलमान, शाहरुख़ या आमिर जैसा कोई बड़ा कलाकार नहीं दिख रहा था... पंचकुला के सिनेमाघर में एक ने औरत 3 टिकट खरीदकर अकेले ही इस फिल्म को देखा था... क्रिटिक्स की प्रतिक्रियाएं भी अच्छी थी तो कैसे मैं क्वीन को न देखती... आखिर में बिना बताये टिकट बुक करवा कर मैं माँ को अपने साथ ले गयी...

मेरे साथ यह पहली बार नहीं हुआ... ऐसा ही कुछ फिल्म तुम बिन, जब वे मेट, गुज़ारिश, रॉकस्टार और बर्फी के समय भी हुआ था... कोई भी मेरे साथ इन्हें देखने को राज़ी नहीं हुआ... और अंत में टीवी या लैपटॉप पर ही मुझे ये फ़िल्में देखनी पड़ी... यहाँ तक की रान्झाना भी मैं धनुष या सोनम की वजह से नहीं बल्कि फिल्मों को लेकर अपनी इस अलग पसंद की वजह से देखने गयी... पर्दे पर जितना ज़रूरी अच्छे हीरो या हिरोइन होते है उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी उनकी कहानी... उनके किरदार और उन्हें दर्शाने का तरीका होता है... जिस फिल्म को देखने के लिए दिमाग और भावनाएं घर छोड़ कर जानी पड़े, वह फिल्म ही क्या... हालाँकि फिल्मों को लेकर हर किसी का अपना अलग नज़रिया और पसंद होती है... लेकिन खुद की और समाज की सोच बदलने के लिए क्वीन जैसी फिल्मों का बनते रहना भी ज़रूरी है... और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है इन् फिल्मों को देखना...

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