भांति-भांति के चेहरे
भांति-भांति के लोग हैं
दिल्ली तेरी मेट्रो में
रोज़ चढ़ते लाखों लोग हैं
कोई जल्दबाज़ी में है, तो कोई परेशान है
सीट पाने की होड़ में
हर कोई खोता अपनी पहचान है
होते हैं वो खुशनसीब
मिल जाती जिनको सीट है
बाकियों के नसीब में
भीड़ के धक्के और तकलीफ़ है
अपनी मंज़िल तक पहुंचने में
लड़ते सभी एक जंग हैं
लोगो की भीड़ को पार करने में
हो जाते सभी बदरंग हैं
सुबह जो चेहरे खिले होते हैं
शाम को वो निढाल हैं
दिल्ली तेरी मेट्रो में
सभी के हाल बेहाल हैं
किसी की अपनी ख़ुशी है
तो किसी की अपनी मजबूरी
किसी को दिल्ली अपना लेता
तो कोई दिल्ली का बन जाता है
क्यूंकि पानी है मंज़िल अगर
तो मेट्रो से ही जाना है
दिल्ली तेरी मेट्रो में
न किसी का कोई ठिकाना है
चढ़ता है यहाँ जोड़े में कोई
तो बॉस से कोई परेशान है
मोबाइल में इयरफ़ोन लगाकर
सभी यहाँ अनजान हैं
जाना है घर किसी को
तो किसी को काम पे जाना है
दिल्ली तेरी मेट्रो से
लोगों का नाता पुराना है
पल-पल बढ़ते किराये के हाथों
मजबूर है हर कोई
कोसते रहते हैं सिस्टम को
फिर भी उपाय न सूझे कोई
सफ़र करना सबकी
मजबूरी बन जाता है
दिल्ली तेरी मेट्रो में
किराया कभी भी बढ़ जाता है
ट्रैफिक का हाल देखकर
सबको मेट्रो याद आती है
भूल जाते है बढ़ा किराया
बस अपनी मंज़िल याद रह जाती है
चुप चाप चढ़ जाते हैं फिर भी
सारी महंगाई भूल कर
दिल्ली तेरी मेट्रो में
अब कुछ तो किराया कम कर
Bahut sunder
जवाब देंहटाएंThank You Sir...
हटाएंBhut Sahi
जवाब देंहटाएंShukriya...
हटाएंThanks
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