कुछ समय पहले मैंने "घर" के ऊपर कुछ लाइन्स कहीं से उठा कर लिखी थीं. बहुत ही सुन्दर परिभाषा थी वो "घर" की. आज उसे ही आगे बढ़ा रहीं हूँ लेकिन अपने शब्दों में, आस-पास के विचारों और ज़िन्दगियों से सीखते हुए. इसलिए इसे सिर्फ मेरी ज़िन्दगी से न जोड़े। हो सकता है, सबके साथ ऐसा न भी होता हो. और हो सकता है कुछ लोग इससे सीधा रिलेट करें. अगर इस पोस्ट पर लोगों द्वारा ज्ञान की लम्बी गंगा बह निकले तो कोई हैरानी वाली बात नहीं होगी। क्यूंकि बहुत से लोगों की भावनाएं भी आहत हो सकती हैं और हो सकता है कुछ लोग मुझसे सहमत भी हों. इसलिए डिस्क्लेमर पहले ही दे दिया है.
सही लिखा था, "घर" वो होता है जहाँ हम अपने हिसाब से अपने स्वाभाविक रूप में रह सकते है. पर उस लेख को शेयर करने के बाद मन में यह ख्याल आया कि एक लड़की का असली "घर" कौन सा होता है. वो, जिसमें एक लड़की पैदा होती है, जहाँ के आँगन में खेल कर वह बड़ी होती है, जहाँ उसके नखरे उठाये जाते हैं, उसे कोई रोक-टोक नहीं होती, वह जैसे चाहे वैसे कपड़े पहनती है, उठती-बैठती है। बर्थ सर्टिफिकेट से लेकर हायर डिग्री की मार्कशीट्स तक में पते के स्थान में वो अपने "घर" का पता भर्ती है.
मगर एक दिन उसकी शादी हो जाती है. उसे एहसास होता है कि बचपन से जिस जगह को वो अपना "घर" समझती थी वो एक पल में ही उसका 'मायका' बन चुका है. पलभर में उसका पता बदल जाता है. उसकी जगह बदल जाती है. हमेशा से गाहे-बगाहे सबके मुँह से वो सुनती आयी थी कि पति का "घर" ही उसका "घर" है, अपने "घर" जाना तो सारे अरमान पूरे कर लेना। जिस नई जगह को वो अपना "घर" समझ कर गृह प्रवेश करती है, वहां पहुँचते ही उसे पता चलता है कि ये तो उसका 'ससुराल' है. यहाँ वो अपने मन से कपड़े नहीं पहन सकती, साड़ी ही पहननी पड़ेगी क्यूंकि ये तो ससुराल है. वहां से बाहर निकलना है तो सर पे पल्लू रखना अनिवार्य है, वर्ना पड़ोसी क्या बोलेगे, क्यूंकि ये तो ससुराल है, वो अपनी मर्ज़ी से उठ-बैठ नहीं सकती क्यूंकि ससुराल वाले क्या सोचेंगे। यहाँ कुछ भी बोलने के पहले उसे सौ बार सोचना पड़ेगा, कहीं कोई बुरा न मान जाये, क्यूंकि ये तो ससुराल है, यहाँ कोई उसके नखरे नहीं उठाएगा बल्कि सबके नखरे उसे उठाने हैं क्यूंकि ये तो ससुराल है. और इन सब के बाद भी उसे बोला जाता है कि तुम अभी तक इसे अपना "घर" नहीं मान पायी।
अब सवाल यह उठता है की ये कैसा "घर" है? यहाँ तो उसका स्वाभाविक रूप ही खतम हो गया. यहाँ वो अपने मूल रूप में नहीं रह सकती। अपने पसंद के काम नहीं कर सकती। जैसे चाहे वैसे कपड़े पहन कर नहीं रह सकती। यहाँ वो अपने मन से नहीं बल्कि दूसरो की पसंद को ध्यान में रखकर जीती है. सुबह उठने से लेकर रात में सोने तक दूसरों के हिसाब से सब करती है. तो फिर ये 'ससुराल' नामक जगह "घर" कैसे हुई? सच के साथ रहने का सबसे आसान तरीका अचानक से इतना मुश्किल कैसे हो गया? आखिर "अपना घर" गया कहाँ?