निकल पड़ी हूँ आज,
खुद से खुद को मिलाने
खुद से खुद को मिलाने
धुंधली होती तस्वीर को,
एक बार फिर से उभारने
अकेली राहों में चलते हुए,
खुद से कुछ पल चुराने...
साथ किसी का पाने,
की इच्छा लिए बगैर...
चल पड़ी हूँ आज,
खुद से ही दोस्ती निभाने...
न कोई दोस्त, न कोई साथी,
आज रहना चाहती हूँ खुद के साथ
कुछ यादों को मिटाने
तो कुछ नयी यादें बनाने...
न जाने कैसा एहसास है यह
जो कर रहा है हर किसी से दूर
अपनी ही नाराज़ परछाई को
चल पड़ी हूँ आज मनाने...
खुशियों की सेज पर जिसके निशां हुआ करते थे
ढूढ़ रही हूँ आज, वो रास्ते पुराने
निकल पड़ी हूँ आज एक नई, मैं को जानने
एक सुन्दर रचना | प्रयाश सराहनीय है| आगे भी लिखते रहे |
जवाब देंहटाएंपोस्ट पढने और उस पर अपने विचार रखने के लिए शुक्रिया... उम्मीद है आप आगे भी ब्लॉग से जुड़े रहेगे...और अपने विचार बांटते रहेगे...
जवाब देंहटाएंBehad Umda Supriya Ji Srivastava.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया हिमांशु जी...
जवाब देंहटाएंIts nice....love it
जवाब देंहटाएंThank you so much Om prakash yadav ji...
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना खुद के लिए समय देना ही चाहिए.
जवाब देंहटाएंBilkul...bahut zaroori hai ye...
जवाब देंहटाएंNice... keep it up
जवाब देंहटाएंShukriya... Ashok ji
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