अंग्रेज़ कहते है भारत एक गरीब देश है और यहाँ के लोग अनपढ़-गंवार। क्या वो सही है? जवाब मिलेगा नहीं, क्योंकि उच्च शिक्षा के लिए पूरी दुनिया में भारत का एक अतुलनीय स्थान है। यहाँ से तकनीकी शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र हर जगह अपनी पहचान बना रहे हैं। शिक्षा एक ऐसा धन है जिसे कोई चुरा नहीं सकता।
मगर ये तो सिक्के का एक पहलू है। सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि भारत में ही निरक्षरों कि सबसे बड़ी आबादी है। आज भले ही गाँव में शिक्षा कि रौशनी दिखाई देने लगी है। स्कूल खुल गए है, टीचर्स भी पहुँच रहे हैं लेकिन उसके बाद भी हमारे देश में करोड़ो लोग अशिक्षित हैं, निरक्षर हैं। क्यों ? भारत में शिक्षा का औसत लगभग ६५.३८ है। जिसमें ७५.८५% पुरुष और ५४.१६% महिलाएं हैं। गाँव की तो छोड़ ही दीजिये क्योंकि वहां तो ३०% पुरुषों ने तो स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। इससे दयनीय हाल तो महिलाओं के हैं। ५०% से ज्यादा लड़कियां स्कूल जा ही नहीं पाती।
कहा जाता है कि तुमने अगर एक मर्द को पढ़ाया तो सिर्फ एक इंसान को पढ़ाया लेकिन अगर एक औरत को पढ़ाया तो एक खानदान को एक नस्ल को पढ़ाया। हाँ उच्च वर्ग के साथ ही मिडिल क्लास परिवारों में अब बेटियों की पढ़ाई-लिखाई पर परेंट्स रूपए खर्च करने लगे हैं और ये खुद में एक प्रशंसनीय बात है। लेकिन आज भी कुछ लोगों की सोच ऐसी बनी हुई है कि वो अपने बेटों को तो स्कूल पढ़ने भेज देते हैं मगर लड़कियों को नहीं। उन्हें लगता है वो पढ़-लिख कर क्या करेगी, आखिर करना तो उसे चूल्हा-चौका ही है न। इसी नासमझी के फेरे में ना जाने कितनी लड़कियां पढ़ने से चूक जाती है। लम्बे अर्से से जारी सरकारी अभियानों के बावजूद भारत में स्त्री-शिक्षा का बुरा हाल है। सरकार लड़कियों के लिए कई स्कूल तो खोल देती है मगर कभी ये पता करने नहीं जाती कि गाँव में कितने माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल पढ़ने भेज रहें हैं।
यूं तो भारत में आज एक बड़ा तबका पढ़ा-लिखा है, अच्छी तरक्की कर रहा है। बड़े संस्थानों से निकले भारतीय छात्रों कि मांग विदेशों में तेज़ी से बढ़ी है। एक से बढ़कर एक पब्लिक स्कूल में परेंट्स अपने बच्चों को पढ़ा रहे है। सरकारी से ज्यादा प्राइवेट स्कूल बन रहे हैं। मगर उसके बावजूद भारत में बसा एक गरीब तबका पढ़ाई करना तो चाहता है लेकिन उसकी गरीबी इसके आड़े आ जाती है।
एक मजदूर का बच्चा प्राइवेट स्कूल की फीस नहीं भर पाता है। क्योंकि मजदूर की एक दिन की कमाई ही लगभग १०० रूपए होती है। वो अपने बच्चे को चाह कर भी स्कूल में नहीं पढ़ा पाता। सरकार कि नज़र शायद इन गरीबों पर जाती ही नहीं। जिनके लिए बच्चों को पढ़ाना तो दूर उनका पेट भरना भी मुश्किल काम है। सरकार इनके लिए सर्वशिक्षा अभियान छेड़ कर महज़ अपना फ़र्ज़ तो अदा कर देती है मगर ये भूल जाती है कि अभियान चलाना तो आसन बात है लेकिन उसे सही ढंग से आगे बढ़ाना मुश्किल।
सिर्फ छोटे शहरों में ही नहीं, बड़े शहरों में भी छोटी-छोटी बस्तियों में बसे लोग गरीबी के चलते अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते। उन्हें शिक्षा मिलती तो है, मगर किताबों कि नहीं बल्कि सिग्नल और स्टेशन पर खड़े होकर भीख मांगने की। शायद इन्हें ही देखकर अंग्रेजों ने भारत को एक गरीब देश की संज्ञा दी है।
मगर ये तो सिक्के का एक पहलू है। सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि भारत में ही निरक्षरों कि सबसे बड़ी आबादी है। आज भले ही गाँव में शिक्षा कि रौशनी दिखाई देने लगी है। स्कूल खुल गए है, टीचर्स भी पहुँच रहे हैं लेकिन उसके बाद भी हमारे देश में करोड़ो लोग अशिक्षित हैं, निरक्षर हैं। क्यों ? भारत में शिक्षा का औसत लगभग ६५.३८ है। जिसमें ७५.८५% पुरुष और ५४.१६% महिलाएं हैं। गाँव की तो छोड़ ही दीजिये क्योंकि वहां तो ३०% पुरुषों ने तो स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। इससे दयनीय हाल तो महिलाओं के हैं। ५०% से ज्यादा लड़कियां स्कूल जा ही नहीं पाती।
कहा जाता है कि तुमने अगर एक मर्द को पढ़ाया तो सिर्फ एक इंसान को पढ़ाया लेकिन अगर एक औरत को पढ़ाया तो एक खानदान को एक नस्ल को पढ़ाया। हाँ उच्च वर्ग के साथ ही मिडिल क्लास परिवारों में अब बेटियों की पढ़ाई-लिखाई पर परेंट्स रूपए खर्च करने लगे हैं और ये खुद में एक प्रशंसनीय बात है। लेकिन आज भी कुछ लोगों की सोच ऐसी बनी हुई है कि वो अपने बेटों को तो स्कूल पढ़ने भेज देते हैं मगर लड़कियों को नहीं। उन्हें लगता है वो पढ़-लिख कर क्या करेगी, आखिर करना तो उसे चूल्हा-चौका ही है न। इसी नासमझी के फेरे में ना जाने कितनी लड़कियां पढ़ने से चूक जाती है। लम्बे अर्से से जारी सरकारी अभियानों के बावजूद भारत में स्त्री-शिक्षा का बुरा हाल है। सरकार लड़कियों के लिए कई स्कूल तो खोल देती है मगर कभी ये पता करने नहीं जाती कि गाँव में कितने माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल पढ़ने भेज रहें हैं।
यूं तो भारत में आज एक बड़ा तबका पढ़ा-लिखा है, अच्छी तरक्की कर रहा है। बड़े संस्थानों से निकले भारतीय छात्रों कि मांग विदेशों में तेज़ी से बढ़ी है। एक से बढ़कर एक पब्लिक स्कूल में परेंट्स अपने बच्चों को पढ़ा रहे है। सरकारी से ज्यादा प्राइवेट स्कूल बन रहे हैं। मगर उसके बावजूद भारत में बसा एक गरीब तबका पढ़ाई करना तो चाहता है लेकिन उसकी गरीबी इसके आड़े आ जाती है।
एक मजदूर का बच्चा प्राइवेट स्कूल की फीस नहीं भर पाता है। क्योंकि मजदूर की एक दिन की कमाई ही लगभग १०० रूपए होती है। वो अपने बच्चे को चाह कर भी स्कूल में नहीं पढ़ा पाता। सरकार कि नज़र शायद इन गरीबों पर जाती ही नहीं। जिनके लिए बच्चों को पढ़ाना तो दूर उनका पेट भरना भी मुश्किल काम है। सरकार इनके लिए सर्वशिक्षा अभियान छेड़ कर महज़ अपना फ़र्ज़ तो अदा कर देती है मगर ये भूल जाती है कि अभियान चलाना तो आसन बात है लेकिन उसे सही ढंग से आगे बढ़ाना मुश्किल।
सिर्फ छोटे शहरों में ही नहीं, बड़े शहरों में भी छोटी-छोटी बस्तियों में बसे लोग गरीबी के चलते अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते। उन्हें शिक्षा मिलती तो है, मगर किताबों कि नहीं बल्कि सिग्नल और स्टेशन पर खड़े होकर भीख मांगने की। शायद इन्हें ही देखकर अंग्रेजों ने भारत को एक गरीब देश की संज्ञा दी है।